Wednesday, 3 June 2015

हंसा तो मोती चूने–(संत लाल) ओशो प्रवचन–07

यह जीवन क्या है? केवल एक पहेली है
यह यौवन क्या है? विस्मृति की रंगरेली है;
यह आत्म-ज्ञान तो भ्रम है, भ्रम है, भ्रम है!
ममता रहती है निशि -दिन यहां अकेली!
जी भरकर मिल लो आज, ठिकाना कल का?
युग का वियोग, संयोग एक ही पल का?
जग क्या है? उसको जान नहीं पाता हूं
मैं निज को ही पहचान नहीं पाता हूं
जग है तो मैं हूं मैं हूं तो यह जग है,
जग मुझ में, मैं भी जग में मिल जाता हूं।
यह एक समस्या, कठिन जिसे सुलझाना!
सुलझानेवाला हाय बना दीवाना!
दीवानापन है पाप? नहीं जीवन है;
ज्ञानी का केवल ज्ञान व्यर्थ क्रंदन है;
ममता पर प्रति पल हंस-हंसकर घुल घुलकर
मरनेवाले का यहां मृत्यु ही धन है;
कामना कसक है और तृप्ति सूनापन;
हंसना ही तो है मृत्यु, रुदन है जीवन!
वैभव-सागर का बूंद- बूंद उत्पीड़न,
आहों के जग का प्रति कण पुलकित स्पंदन-
नादान विश्व क्या समझ सकेगा इसको?
मर मिटने में ही अरे यहां है जीवन!
चातक से सीखो तड़प-तड़प मर जाना;
सीखो पतंग से निज अस्तित्व मिटाना!
मधुकर क्या जाने प्रेम? प्रेम है तड़पन!
उन्माद- भरा है दो प्राणों का बंधन;
कलिका का ले सर्वस्व, नष्ट कर उसको
उड़ जाने में ही है मधुकर को पुलकन!
रस में मिल जाना ही है रस का पीना;
जो मिट न सगा वह नहीं जानता जीना!
लेना पल भर का, युग- युग भर का देना,
निज का देना ही है जीवन का लेना
बाजार उठ रही, और दूर जाना है
जितना जी चाहे कर लो लेना-देना!
उस की लाल से मुख की कालिख धो
लो सर आज हथेली पर है बोलो बोलो!
मस्ती में हस्ती भरी हुई गाफिल की
मत बात चलाना अरे अभी मंजिल की
चलना है हमको बरबस जाना होगा
फिर क्यों रह जाने पाए दिल में दिल की?
मैं समय-सिंधु में डुबा चुका अपनापन!
कल एक कल्पना और आज है जीवन!
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निर्बाध अक्षय गति लिए
मैं चला रहा, बस चल रहा।
यह पथ अजान कठोर है,
दिखता न ओर न छोर है,
रंजित अनिश्चय से यहां
हर सांझ है, हर भोर है।
हर काम में कुछ भूल,
हर कदम खतरे से भरा
हर दृष्टि कुछ सहमी हुई
हर सास में कुछ शोर है।
सब जानता हूं पर वहीं
कुछ लग रहा ऐसा मुझे
साहस बला मैं लिए
मुझ में बला का जोर है।
उर में असीमित दाह है
है रक्त में ज्वाला अमिट
निष्कम्प-सा निर्धूम-सा
मैं जी रहा, बस जल रहा!
आकुल अतृप्त तृषा लिये
मैं जल रहा बस जल रहा!
उन्माद सौरभ का भरे
निज में, सौरभ का भरे
निज में, कली है झूमती
होकर विकल मधु ज्वाल को
कोयल स्वरों में चूमती!
उन्माद मुझमें सुरभि का
संगीत है मधु ज्वाल का
पागल बसंत बयार-सी
हर चाह दिशि-दिशि घूमती!
जलती हुई हर भावना,
जलता हुआ हर प्यार है,
कुछ लग रहा ऐसा मुझे
जीवन स्वयं अंगार है।
अंगार-जिसमें पुलक है,
अंगार-जिसमें तरलता,
नित हास में नित अश्रु में
मैं गल रहा, बस गल रहा!
कोमल मृदुल करुणा लिये
मैं गल रहा, बस गल रहा!
बादल गला, पीकर उसे
प्यासी धरा मुसका पडी,
हिम की गलन से उमैं कर
सरिता विसुध -सी गा पडी!
गलना नियति का कम यहां-
मैं जानता हूं क्या करूं
निःसीम भ्रम से ज्ञान की
सीमा विवश टकरा पड़ी!
कितनी घुटन, कितनी व्यथा,
कितनी विवशताए लिए
मैं रच रहा सपने कि जो
रंगीन आशाएं लिए!
कैसी झिझक? कब सत्य को
कोई यहां पर पा सका?
इसलिए अपने आप को
मैं छल रहा बस छल रहा!
जग के रुदन को हास से
मैं छल रहा, बस छल रहा!
है धूप कुछ हंसती हुई,
कुछ चादनी पुसका रही,
सुकुमार फूलों की सुरभि
उल्लास -लाल लुटा रही!
लेकर कुतूहल कम्प को
हर दिन यहां उत्सव नया,
संगीत तारों में विशुद्ध
है रात लोरी गा रही
पर क्या करूं, निज स्वप्न से
कब कौन उलझा रह सका?
हैं पैर रुकना चाहते
पर राह बढ़ती जा रही!
जो रुक गया वह मर गया
चलना अकेले जिंदगी
विश्वास भ्रम से खेलता
मैं चल रहा बस चल रहा
निर्बाध अक्षय गति लिए
मैं चल रहा बस चल रहा।
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हंसा तो मोती चुगैं। और तुम हो हंस-मोती चुगने को बने हो!
चरण बढ़ाता हूं मैं अपने जिन सपनों को संग ले
मैं क्या जानूं वे आए हैं अपनी एक उमंग ले?
वैसे कल है एक आवरण जो अभेद्य है मौन है
पर हम उसका चित्र बनाते अपने अपने रंग ले!
रंगों में अस्तित्व यहां है रंगों में दिन-रात है
फिर उससे क्यों टकराना जो अदृश्य अज्ञात है?
उठती गिरती इन सांसों की घटती बढ़ती प्यास है,
जो टूटा वह असत्य, सत्य जो बना हुआ विश्वास है।
वैसे बनना और बिगड़ना अपने बस की बात कब
पर रीते को भरने वाला जीवन अपने पास है
कब देखा इस पार कि उलझूं कहां छिपा उस पार है?
जिधर झुकाई दृष्टि उधर ही मुझे दिखा मझधार है!
कभी शोक का कभी हर्ष का मेरा प्रतिपल पर्व है
कुछ चाहो में कुछ आहों मेरी संज्ञा सर्व है!
वैसे पागल सी यह दुनिया उलझ रही है ज्ञान से
पर मैं सुलझा जिन भूलों से उन पर मुझको गर्व है!
मैंने कब पूछा है किससे क्या हर्ष क्या खेद है?
खुलने पर बर गया धुआ -सा मन को जो भी भेद है!
है इतनी सामर्थ्य भला कब अनचाहे छोड़ दूं?
किस प्रकाश के बल पर अपनी खोई राहें मोड़ दूं?
वैसे कौतुक क्षणिक भावना पल भर का उन्माद है
मैं अपनी ही सीमा को बोलो कैसे तोड़ पर दू?
मेरे सनमुख जो कुछ है वह सीमा में लयमान है।
सीमाओं में बंधा अहं है, सीमा ही वरदान है!
ऐसे आदमी अपने को समझाता रहता है। यही जिंदगी है -यही सीमाओं की, यही अहंकार की; यही आपाधापी, यही व्यवसाय, यही धन, पर-प्रतिष्ठा।
मेरे सम्मुख जो कुछ है वह सीमा में लयमान है।
सीमाओं में बंधा अहं है, सीमा ही वरदान है!
ऐसे हम अपने को सांत्वना दे लेते हैं कि बस यही हमारी नियति है।
नहीं-नहीं, मृत्यु तुम्हारी नियति नहीं है। अमृत का तुम्हारा स्वरूप -सिद्ध अधिकार है। और अगर तुम्हें सब जगह मझधार दिखाई पड़ती है
कब देखा इस पार कि उलझूं कहां उस पार है?
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बीत गयी बातों में
रात वह खयालों की
हाथ लगी निदियारी जिंदगी
आंसू था सिर्फ एक बूंद
मगर जाने क्यों
भीग गयी है सारी जिंदगी
वह भी क्या दिन था-
जब सतर की लहरों ने
घाट बंधी नावों की
पीठ थपथपायी थी
जाने क्या जादू था
मेरे मनुहारों में
चांदनी
लजा कर इन बाहों तक आयी थी
अब तो
गुलदस्ते में बासी कुछ फूल बचे
और बची रतनारी जिंदगी
मन के आईने में
उगते जो चेहरे में
हर चेहरे में
उदास हिरनी की आखें हैं
आंगन से सरहद को जाती-
पगडंडी की दूबों पर
बिखरी कुछ बगुले की पाखें हैं
अब तो
हर रोज हादसे गुमसुम सुनती है
अपनी यह गौधारी जिंदगी
जाने क्या हुआ
नदी पर कोहरे मंडराये
मूक हुई सांकल
दीवार हुई बहरी है
बौरों पर पहरा है-
मौसमी हवाओं का
फागुन है नाम
मगर जेठ की दुपहरी है
अब तो अस बियावान में
पडाव ढूंढ रही
मृगतृष्णा की मारी जिंदगी!
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जागो और थोडा देखो!
देखी है खिजा की बेरहमी वीरान गुलिस्तां देखा है?
जलते हुए जंगल देखे हैं सूखा हुआ चश्मा देखा है?
लुट जाते है चौराहे पर गफलत में कभी चौकन्ने में
दावा तो यही सब करते हैं हमने भी जमाना देखा है?
देखी भी नहीं मय मुद्दत से तुम कहते हो पी रखी है
प्यासा कैसे बहकेगा भला पीकर तो बहकना देखा है।
झुलसे हैं कभी, टूटे हैं कभी, बह निकले हैं सैलाब में हम,
जीने की हर टूक ख्वाहिश में बस मौत का सामी देखा है
राही तो मंजिल पा ही गये सब उनकी खुशिर्या देखते हैं,
राहों के सीनों का किसने रौंदा हुआ अरमां देखा है।
वैसे तो तजुर्बे की खातिर नाकाफी है यह उस मगर,
हमने तो जरा से अर्से में मत पूछिए क्या क्या देखा है।
बोध हो तो जरा से अर्से में सब देख लिया जाता है और बोध न हो तो सत्तर अस्सी साल, नब्बे साल, सौ सालमगर वही दौड़, वही मूढ़ता, वही चले दिल्ली! वही आकांक्षाएं पद की, वही तृष्णाएं! देखी है खिजां की बेरहमी वीरान गुलिस्तां देखा है?
जलते हुए जंगल देखे हैं सुखा हुआ चश्मा देखा है?
ऐसे ही एक दिन हो जाओगे-जीते हुए जंगल, सूखा हुआ चश्मा। आज नहीं कल पतझड़ आने को है।
वसंत में भूले मत रहो, भटके मत रहो।
लुट जाते हैं चौराहे पर गफलत में कभी चौकन्ने में
दावा तो यही सब करते हैं हमने भी जमाना देखा है।
नहीं, सभी ने जमाना नहीं देखा होता। अधिक लोग तो बाल धूप में पकाते हैं और सोचते हैं कि जमाना देखा है। जिसने जमाना देख लिया, वह परमात्मा देख लिया, वह परमात्मा की तरफ मुड़े बिना रह नहीं सकता।
पिरथी भूली पीव कूं? पड्यां समदरा खोज।
मेरे हांसे मैं हंसु, दुनिया जाणे रोज।
लाल कहते हैं : पृथ्वी उस प्यारे को भूल ही गयी है। पिरथी भूली पीव कूं? पड्या समदरा खोज! इसीलिए हम समुद्र में गिर गये हैं और खोजना पड़ रहा है, तड़फना पड़ रहा है, चिल्लाना पड़ रहा है। उस एक प्यारे को याद करते ही समंदर विलीन हो जाता है। उस प्यारे को याद करते ही किनारा मिल जाता है। वह प्यारा ही किनारा है। उसकी याद ही किनारा है।
पिरथी भूली पीव कूं? पड्या समदरा खोज।
मेरे हांसे मैं हंसूं? दुनिया जाणे रोज।।
और लाल कहते हैं कि बड़े मजे की बात है कि मैंने तो परमात्मा को पा लिया है और आनंदित हूं मग्न हूं। मेरी जिंदगी तो हंसी ही हंसी, हंसी का फव्वारा हो गयी है। और लोग समझते हैं कि बेचारा उदास हो गया, उदासीन हो गया, त्यागी हो गया, व्रती हो गया! सब छोड्कर चला गया-बेचारा! मैं तो हंसता हूं; लोग समझते हैं रोता हूं।
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