Friday, 5 June 2015

अथातो भक्तिज जिज्ञासा (भाग–1) प्रवचन–20

डूबा हुआ हूं सर से कदम तक बहार में
न छेड़ उनके तसव्वुर में ऐं बहार मुझे
कि बूगुल भी इस वक्त नागवार मुझे
जो डुब जाता हैं उसके आनंद में उसके चारों तरफ बहार ही बहार हो जाती है, बसंत ही बसंत हो जाता है, पतझड़ में भी उसे बसंत दिखायी पड़ता है।
डूबा हुआ हूं सर से कदम तक बहार मे
न छेड़ उनके तसव्वुर में ऐं बहार मुझे
……………………………………………………………….
उल्टी ही चाल चलते हैं दीवानगाने इश्क
करते हैं बंद आंखों को दीदार के लिए
…………………………………………………………………….
हद टप्पै सो औलिया, बेहद टप्पै सो पीर
हद बेहद दोनों टपै, ताका नाम फकीर
…………………………………………………………….
दोस्त, मैं देख चुका ताजमहल
वापस चल
मरमरीमरमरी फूलों से उबरता हीरा
चांद की आच में दहके हुए सीमी मीनार
जेहने शायर से यह करता हुआ चश्मक पैहम
एक मलिका का जियापोशोफजाताब मजार
खुदबखुद फिर गये नजरों में बअंदाजेसवाल
वह जो रस्तों पे पड़े रहते हैं लाशों की तरह
खुश्क होकर जो सिमट जाते हैं बेरस आसाब
धूप में खोपडिया बजती हैं ताशों की तरह
दोस्त, मैं देख चुका ताजमहल
वापस चल
यह धड़कता हुआ गुंबद में दिलेशाहजंहा
यह दरोंबाम पे हंसता हुआ मलिका का शबाव
जगमगाता है हर इक तह से मजाकेतफरीक
और तारीख उढाती है मुहब्बत की नकाब
चांदनी और यह महल आलमेहैरत की कसम
दूध की नहर में जैसे उबाल आ जाये
ऐसे सैयाह की नजरों में छुपे क्या यह समा
जिसको फरहाद की किस्मत का खयाल आ जाये
दोस्त में, देख चुका ताजमहल
वापस चल
यह दमकती हुई चौखट यह तिलापोश कलस
इन्हीं जल्वों ने दिया कब्रपरस्ती को रिवाज
माहोअंजुम भी हुए जाते हैं मजबूरेसजूद
वाह आरामगहेमालिकएमाबूद मिजाज
दीदनी कस्त नहीं दीदनी तक्सीन है यह
रूएहस्ती पे धुआ, कब्र पे रक्सेअनवार
फैल जाये इसी रौजे का जो सिमटा दामन
कितने जानदार जनाजों को भी मिल जाये मजार
दोस्त, मैं देख चुका ताजमहल
वापस चल
……………………………………………………..
तुम मुहब्बत को छिपाती क्यों हो?
हाय! यह हीर की सूरत जीना
मुंह बिगाड़े हुए अमृत पीना
कांपती रूह धड़कता सीना
जुर्म फितरत को बताती क्यों हो?
तुम मुहब्बत को छिपाती क्यों हो?
ही, वह हंसते हैं जो इंसान नहीं
जिनको कुछ इश्क का इरफान नहीं
संगजदों जरा जान नहीं
आंख ऐसों की बचाती क्यों हो?
तुम मुहब्बत को छिपाती क्यों हो?
जुर्म तुमने कोई ढाया तो नहीं
इनेआदम को सताया तो नहीं
खूं गरीबों का बहाया तो नहीं
यों पसीने में नहाती क्यों हो?
तुम मुहब्बत को छिपाती क्यों हो?
झेंपते तो नहीं मंदिर के मकी
झेंपते तो नहीं मेहराबनशीं
मक्र पर उनकी चमकती है जबीं
सिद्क पर सर को झुकाती क्यों हो?
तुम मुहब्बत को छिपाती क्यों हो?
पर्दा है दाग छुपाने के लिए
शर्म है किज्व पे छाने के लिए
इश्क इक गीत है गाने के लिए
इसको ओठों में दबाती क्यों हो?
तुम मुहब्बत को छिपाती क्यों हो?
………………………………………………………….
ऊपर से छूने पर तो मखमल हैं चेहरे
अंदर से कुंठाओं के मरुथल हैं चेहरे
दर्पण में खुद को पहचान नहीं पाते
आत्मअपरिचय के ऐसे जंगल हैं चेहरे
सदा झनकते रहे दूसरों के पांवों में
औरों के पग बंधी हुई पायल हैं चेहरे
पांव रखो तो धंसते हुए चले जाते हैं
रिश्तों की मीलों लंबी दलदल हैं चेहरे
भटक रहे हैं सपनों के रेगिस्तानों में बेचारे,
प्यासे मृग से पागल हैं चेहरे अब चेहरे छोड़ो,
मुखौटे छोड़ो, अब ढोंग मिटाओ, अब पाखंड गिराओ, अब आवरणों से मुका हो जाओ! अब उसकी तलाश करो जो तुम हो, वस्तुत: तुम हो। जो जन्म के पहले तुम थे और जो मृत्यु के बाद तुम फिर हो जाओगे। अहंकार छोड़ो, तभी भक्ति की जिज्ञासा हो सकेगी। क्योंकि जो स्वयं को खोता है, वही परमात्मा को पाता है।
खयाल, सांस, नजर, सोच, खोल कर दे दो
लबों से बोल उतारों, जबां से आवाजें
हथेलियों से लकीरें उतार कर दे दो
ही दे दो अपनी खुशी भी कि खुद नहीं हो तुम
उतारों रूह से यह जिस्म का हसी गहना
उठो दुआ से तो आमीन कहके रूह भी दे दो
………………………………………………………………………….
नयीनयी किरन
नयी धरा, नया गगन
केंचुली उतारों रे! केंचुली उतारों!
पोखर की माटी से सिंहासन
जब तक बन जाए नहीं, हीरामन!
जोर से पुकारो रे! केंचुली उतारो!
रेखाएं खींच मत इकाई की
सुबहशाम पाट उमर खाई की
कालिमा बुहारो रे! केंचुली उतारों!
धरती का गीत है पसीने में
मुट्ठी भर पूल है नगीने में
भूमि के सितारो रे! केंचुली उतारों।
सब केंचुलिया उतार दो। जैसे सांप अपनी पुरानी केंचुली को छोड़कर निकल जाता है, ऐसे तुम अपने तथाकथित व्यक्तित्व को छोड़कर निकल जाओ।
तुम पूछते होंअब हम क्या करें?
अथातो भक्तिजिज्ञासा!
आज इतना ही।


No comments:

Post a Comment