सायते फसल गुल है जवानी
क्यों न जिस्मे-मय हो, मयवशां हो
आकबत के अजाबों का रोना
इंबो मुबारक मनों में क्यों हो?
====================
जमजमा साज का पायल के छनाके की तरह
बेहतर अजसोरसे ताकूसो अजां है साकी।
----------------------------------------------
है नींद सुहागिन वंदिनी
परदेशी पी की बांहों में
ओ मेरे सपनों के स्रष्टा
ओ मेरी जागृति के द्रष्टा
क्या ज्ञात नहीं, मेरी सीमित
साधे हैं तेरी चाहों में?
ओ मेरे मोहन परदेशी,
तेरी राधा वल्कल-वेशी
आशा का दीप लिए बैठी है
पल-छिन तेरी राहों में
इन श्वासों का ताना-बाना
रुक जाए नहीं आना-जाना
युग से पल बीत रहे मेरे
मैं डूब रही हूं आहों में
तेरी पद-रज कुंकुम रौली
तू था तो प्रतिदिन होली
तू तो तरु, मैं हूं लता
पुष्प पलती हूं तेरी छांओं में
ओ मेरे सपनों के स्रष्टा
ओ मेरी जागृति के द्रष्टा
क्या ज्ञात नहीं है, मेरी सीमित
साधे हैं तेरी चाहों में?
है नींद सुहागिन वंदिनी
परदेशी पी की बांहों में।
…………………………………………..
अभिनय करो
प्रणय का अभिनय करो
अभी नहीं बंद करो
एक बार, दो बार, तीन बार, नहीं-नहीं
नित्य ही अभिनय करो
नित्य ही अभिनय करो
बहुत भला लगता है
सांसों पर सरगम-सा चलता है
क्या बुरा है यदि ऐसे ही
प्राणों को छला जाए,
यूं ही सहज सरल
जीवन-क्रम चलता जाए?
…………………………………………………………………..
रूदादे गमे उल्फत उनसे हम
क्या कहते, क्योंकर कहते
एक हर्फ न निकला ओंठों से
और आंख में आंसू आ भी गए।
……………………………………….
“क्या सोवै तू बावरी, चाला जात बसंत।।
चाला जात बसंत, कंत ना घर में आए।
धृग जीवन है तोर, कंत बिन दिवस गंवाए।।
गर्व गुमानी नारि फिरै, जोवन की माती।
खसम रहा है रूठि, नाहीं तू पठवै पाती।।
लगै न तेरो चित्त, कंत को नाहिं मनावै।
कापर करै सिंगार, फूल की सेज बिछावै।।
पलटू ऋतु भरि खेलि ले, फिर पछतावै अंत।
क्या सोवै तू बावरी, चाला जात बसंत।।’
………………………………………………………………..
“ज्यौं-ज्यौं सूखे ताल है, त्यौं-त्यौं मीन मलीन।।
त्यौं-त्यौं मीन मलीन, जेठ में सूख्यो पानी।
तीनों पन गए बीति, भजन का मरम न जानी।।
कंवल गए कुम्हिलाय, हंस ने किया पयाना।
मीन लिया कोऊ मारि, ठांय ढेला चिहराना।।
ऐसी मानुष-देह वृथा में जात अनारी।
भूला कौल करार, आपसे काम बिगारी।।
पलटू बरस और मास दिन, पहर घड़ी पल छीन।
ज्यौं-ज्यौं सूखे ताल है, त्यौं-त्यौं मीन मलीन।।’
…………………………………………………………………..
“पिय को खोजन मैं चली, आपुइ गई हिराय।।
आपुइ गई हिराय, कवन अब कहै संदेशा।
जेकर पिय में ध्यान, भई वह पिय के भेषा।।
आगि माहि जो परै, सोउ अगनी हवै जावै।
भृंगी कीट को भेंट आपु सम लैइ बनावै।।
सरिता बहिकै गई, सिंध में रही समाई।
सिव सक्ति के मिले, नहीं फिर शक्ति आई।।
पलटू दिवाल कहकहा, मत कोउ झांकन जाय।
पिय को खोजन मैं चली, आपुइ गई हिराय।।’
……………………………………………………………………………………..
“पिय को खोजन मैं चली, आपुइ गई हिराय।।
आपुइ गई हिराय, कवन अब कहै संदेशा।
जेकर पिय में ध्यान, भई वह पिय के भेषा।।
आगि माहि जो परै, सोउ अगनी हवै जावै।
भृंगी कीट को भेंट आपु सम लैइ बनावै।।
सरिता बहिकै गई, सिंध में रही समाई।
सिव सक्ति के मिले, नहीं फिर शक्ति आई।।
पलटू दिवाल कहकहा, मत कोउ झांकन जाय।
पिय को खोजन मैं चली, आपुइ गई हिराय।।’
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क्यों न जिस्मे-मय हो, मयवशां हो
आकबत के अजाबों का रोना
इंबो मुबारक मनों में क्यों हो?
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जमजमा साज का पायल के छनाके की तरह
बेहतर अजसोरसे ताकूसो अजां है साकी।
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है नींद सुहागिन वंदिनी
परदेशी पी की बांहों में
ओ मेरे सपनों के स्रष्टा
ओ मेरी जागृति के द्रष्टा
क्या ज्ञात नहीं, मेरी सीमित
साधे हैं तेरी चाहों में?
ओ मेरे मोहन परदेशी,
तेरी राधा वल्कल-वेशी
आशा का दीप लिए बैठी है
पल-छिन तेरी राहों में
इन श्वासों का ताना-बाना
रुक जाए नहीं आना-जाना
युग से पल बीत रहे मेरे
मैं डूब रही हूं आहों में
तेरी पद-रज कुंकुम रौली
तू था तो प्रतिदिन होली
तू तो तरु, मैं हूं लता
पुष्प पलती हूं तेरी छांओं में
ओ मेरे सपनों के स्रष्टा
ओ मेरी जागृति के द्रष्टा
क्या ज्ञात नहीं है, मेरी सीमित
साधे हैं तेरी चाहों में?
है नींद सुहागिन वंदिनी
परदेशी पी की बांहों में।
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अभिनय करो
प्रणय का अभिनय करो
अभी नहीं बंद करो
एक बार, दो बार, तीन बार, नहीं-नहीं
नित्य ही अभिनय करो
नित्य ही अभिनय करो
बहुत भला लगता है
सांसों पर सरगम-सा चलता है
क्या बुरा है यदि ऐसे ही
प्राणों को छला जाए,
यूं ही सहज सरल
जीवन-क्रम चलता जाए?
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रूदादे गमे उल्फत उनसे हम
क्या कहते, क्योंकर कहते
एक हर्फ न निकला ओंठों से
और आंख में आंसू आ भी गए।
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“क्या सोवै तू बावरी, चाला जात बसंत।।
चाला जात बसंत, कंत ना घर में आए।
धृग जीवन है तोर, कंत बिन दिवस गंवाए।।
गर्व गुमानी नारि फिरै, जोवन की माती।
खसम रहा है रूठि, नाहीं तू पठवै पाती।।
लगै न तेरो चित्त, कंत को नाहिं मनावै।
कापर करै सिंगार, फूल की सेज बिछावै।।
पलटू ऋतु भरि खेलि ले, फिर पछतावै अंत।
क्या सोवै तू बावरी, चाला जात बसंत।।’
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“ज्यौं-ज्यौं सूखे ताल है, त्यौं-त्यौं मीन मलीन।।
त्यौं-त्यौं मीन मलीन, जेठ में सूख्यो पानी।
तीनों पन गए बीति, भजन का मरम न जानी।।
कंवल गए कुम्हिलाय, हंस ने किया पयाना।
मीन लिया कोऊ मारि, ठांय ढेला चिहराना।।
ऐसी मानुष-देह वृथा में जात अनारी।
भूला कौल करार, आपसे काम बिगारी।।
पलटू बरस और मास दिन, पहर घड़ी पल छीन।
ज्यौं-ज्यौं सूखे ताल है, त्यौं-त्यौं मीन मलीन।।’
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“पिय को खोजन मैं चली, आपुइ गई हिराय।।
आपुइ गई हिराय, कवन अब कहै संदेशा।
जेकर पिय में ध्यान, भई वह पिय के भेषा।।
आगि माहि जो परै, सोउ अगनी हवै जावै।
भृंगी कीट को भेंट आपु सम लैइ बनावै।।
सरिता बहिकै गई, सिंध में रही समाई।
सिव सक्ति के मिले, नहीं फिर शक्ति आई।।
पलटू दिवाल कहकहा, मत कोउ झांकन जाय।
पिय को खोजन मैं चली, आपुइ गई हिराय।।’
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“पिय को खोजन मैं चली, आपुइ गई हिराय।।
आपुइ गई हिराय, कवन अब कहै संदेशा।
जेकर पिय में ध्यान, भई वह पिय के भेषा।।
आगि माहि जो परै, सोउ अगनी हवै जावै।
भृंगी कीट को भेंट आपु सम लैइ बनावै।।
सरिता बहिकै गई, सिंध में रही समाई।
सिव सक्ति के मिले, नहीं फिर शक्ति आई।।
पलटू दिवाल कहकहा, मत कोउ झांकन जाय।
पिय को खोजन मैं चली, आपुइ गई हिराय।।’
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