Friday, 5 June 2015

अजहू चेत गवांर (संत पलटूदास) प्रवचन–15

बोलु हरिनाम तू छोड़ि दे काम सब
सहज में मुक्ति होइ जाय तेरी।
दाम लागै नहीं काम यह बड़ा है,
सदा सतसंग में लाउ फेरी।।
बिलम न लाइकैं डारि सिर भार को,
छोड़ि दे आस संसार केरी।
दास पलटू कहै यही संग जायगा।
बोलु मुख राम यह अरज मेरी।।1।।
 पूरब में राम है पच्छिम खुदाय है,
उत्तर और दक्खिन कहो कौन रहता?
साहिब वह कहां है, कहां फिर नहीं है,
हिंदू और तुरक तोफान करता।।
हिंदू और तुरक मिलि परे हैं खैंचि में
आपनी बर्ग दोउ दीन बहता।
दास पलटू कहै, साहिब सब में रहै,
जुदा न तनिक, मैं सांच कहता।।2।।
 जाहि तन लगि है, सोइ तन जानिहै
जानिहै वही सतसंग-वासी।
कोटि औषधि करैं, विरह ना जायगा,
जाहि के लगी है विरहगांसी।।
नैन झरना बन्यौ, भूख ना नींद है  
परी है गले बिच प्रेम-फांसी।
दास पलटू कहै, लगी ना छूटिहै,
सकल संसार मिलि करै हांसी।।3।।
 होय रजपूत सो चढ़ै मैदान पर,
खेत पर पांच पच्चीस मारै
काम औ क्रोध दुई दुष्ट ये बड़े हैं,
ज्ञान के धनुष से इन्हें टारै।।
कूद परि जायकै कोट काया मंहै,
आगि लगाय के मोह जारै।।
दास पलटू कहैं सोई रजपूत है,
लेहि मन जीति तब आपु हारै।।4।।
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दर्द इक ना-ख्वांदा मेहमां था
अगर रुखसत हुआ,
यास का इसमें कोई पहलू न था
लेकिन ऐ दिल,
ऐ अजूबाकार दिल!
तू तो यूं हिरमाजदा है
छुट गया हो जैसे कोई यारेगार
ये जो इक झोंका मसर्रत का दर आया है
मुझे मालूम है,
है तेरी उम्रे-रियाजत का सिला
लेकिन ऐ दिल, ऐ अजूबाकार दिल!
अब तुझे होने लगा उफताद का इस पर गुमां,
आह ऐ दिल,
ऐ अजूबाकार दिल!
बस के कोहना मरीज
अपने जख्मों से मुहब्बत है तुझे।
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दर्द एक ना-ख्वांदा मेहमां था,
अगर रुखसत हुआ,
यास का इसमें कोई पहलू तो न था।
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लेकिन ऐ दिल, ऐ अजूबाकार दिल!
यह दिल बड़ा विचित्र है!
लेकिन ऐ दिल, ऐ अजूबाकार दिल!
ऐ विचित्र दिल!
तू तो यूं हिरमाजदा है! तू तो ऐसा निराश मालूम होता है दुःख के चले जाने सेछुट गया हो जैसे कोई यारेगार . . . जैसे कोई प्यारा छूट गया हो, कोई प्रीतम छूट गया हो, कोई यार छूट गया हो, कोई मित्र छूट गया हो!
तू तो यूं हिरमाजदा है
छुट गया हो जैसे कोई यारेगार
ये जो इक झोंका मसर्रत का दर आया है
और यह जो हलकी-सी झलक सुख की आयी है, झोंका ही है। ज़रा-सी हवा सुख की आ गयी है तेरी तरफ।
ये जो इक झोंका मसर्रत का दर आया है
मुझे मालूम है, है तेरी उम्रे-रियाजत का सिला।
यह तूने जीवन भर मांगा था। इसी के लिए प्रार्थनाएं की थीं। इसलिए मंदिर-मस्जिदों में सिर पटका था। इसके लिए तपश्चर्याएं की थीं। यह ऐसे ही नहीं आया है; बहुत मांगे-मांगे, बहुत बुलाए-बुलाए आया है। बड़ी प्रार्थनाओं का फल है।
ये जो इक झोंका मसर्रत का दर आया है
मुझे मालूम है, है तेरी उम्रे-रियाजत का सिला।
लेकिन ऐ दिल, ऐ अजूबाकार दिल!
तू तो यूं हिरमाजदा है,
छूट गया हो जैसे कोई यारेगार
ये जो एक मसर्रत का झोंका दर आया है
मुझे मालूम है,
है तेरी उम्रे-रियाजत का सिला
लेकिन ऐ दिल, ऐ अजूबाकार दिल!
अब तुझे होने लगा उफताद का इस पर गुमां!
यह जो सुख की झलक आयी है, इस पर भरोसा नहीं आता; लगता है कि यह कोई दैवी प्रकोप है, कोई पागलपन है, कोई विक्षिप्तता है। यह जो सुख का झरोखा आया है, यह कोई सपना है। मेरी कोई कल्पना है।यह जो सुख का झोंका आया है, इसे इनकार करने का मन होता है, क्योंकि यह सुख का झोंका तुम्हें पोंछ जाएगा। इसके पहले कि तुम्हें पोंछ दे, तुम उसे इनकार करना शुरू कर देते हो।
अब तुझे होने लगा उफताद का इस पर गुमां
तुझे शक हो रहा है कि यह तो कोई दैवी-प्रकोप मालूम होता है। यह कहां की झंझट! यह कैसी बला मेरे ऊपर आ गयी!
आह ऐ दिल, ऐ अजूबाकार दिल!
बस के कोहना मरीज
पुराने बीमार हो तुम। दुःख के आदी हो गए हो। अपने जख्मों से मोहब्बत है तुझे। तुम्हें अपने जख्मों से प्रेम हो गया है।
 
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ये जो इक नूर की हल्की-सी किरन फूटी है
कौन कहता है इसे सुब्हे दरख्शां ऐ दोस्त
मुझ को एहसास है, बाकी है शबेत्तार अभी
लेकिन ऐ दोस्त मुझे रक्स तो कर लेने दे
कम से कम नूर ने उलटा तो है इक बार नकाब
एक लम्हे को तो टूटा है तिलस्मे-शबेत्तार
इससे साबित तो हुआ, सुबह भी हो सकती है
परदा-ए-जुलमते शब चाक भी हो सकता है
सुब्हे काजिब भी तो है असल में दिबोचः सुबह
सुब्हे काजिब भी तो है सुब्हे दरख्शां की नवेद
एक ऐलान कि हंगामे-विदा-ए-शब है
काफिला नूरे-सहर का है बहुत ही नजदीक
जल्द होने को है खुरशीदे-दरख्शां की नुमूद
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सहज में मुक्ति हो जाय तेरी।
दाम लागै नहीं, काम यह बड़ा है
सदा सतसंग में लाउ फेरी।।
बिलम न लाइकैं डारि सिर भार को
छोड़ि दे आस संसार केरी।
दास पलटू कहै यही संग जायगा,
बोलु मुख राम यह अरज मेरी।।
पूरब में राम है, पच्छिम खुदाय है
उत्तर में और दक्खिन कहो कौन रहता?
साहिब वह कहां है, कहां फिर नहीं है,
हिंदू और तुरक तोफान करता।।
हिंदू और तुरक मिलि परे हैं खैंचि में
आपनी बर्ग दोउ दीन बहता।
दास पलटू कहै साहिब सब मैं रहै
जुदा न तनिक मैं सांच कहता।।
जाहि तन लगी है, सोई तन जानिहै
जानिहै वही सतसंग-वासी
कोटि औषधि करैं विरह ना जायगा
जाहिकै लगी है विरगांसी।।
नैन झरना बन्यो भूख ना नींद है
परी है गले बिच प्रेम-फांसी।
दास पलटू कहै लगी ना छूटिहै
सकल संसार मिलि करैं हांसी।।
होय रजपूत सो चढ़ै मैदान पर,
खेत पर पांच-पच्चीस मारै।
काम और क्रोध दुई दुष्ट ये बड़े हैं,
ज्ञान के धनुष से इन्हें टारै।।
कूद परि जायकै कोटि काया मंहै,
आग लगाय कै मोह जारै।
दास पलटू कहैं सोई रजपूत है
लेहि मन जीति तब आपु हारै।।
आज इतना ही।
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