Saturday, 6 June 2015

मन ही पूजा मन ही धूप–(संत रैदास) प्रवचन–6

मंत्री जी अपने खानपान में
गांधीवाद को निभाते हैं।
आइसक्रीम केवल
बकरी के दूध की खाते हैं।
वे गांधी जी की सादगी को भीतर से अपनाते हैं
ऊपर लकदक
खादी का धोतीकुर्ता है तो क्या हुआ
नीचे लंगोटी लगाते हैं।
गांधी जी की
अहिंसा का अनुसरण कर
वे मांस को
हाथ नहीं लगाते हैं
उसे छुरीकांटे से खा जाते हैं।
वे सत्य पर
बहुत जोर देते हैं
ऊपर से झूठ बोल कर
मन ही मन
सच बात कह लेते हैं।
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अपने ही हाथों में पतवार सम्हाली जाए
तब तो मुमकिन है कि ये नाव बचा ली जाए
आज के दौर में जीने की शर्त है यारो
लाश ईमान की कांधे पे उठा ली जाए
पूरे गुलशन का चलन चाहे बिगड़ जाए मगर
बदचलन होने से खुशबू तो बचा ली जाए
धुआंधुआं सी मशालों को जलाने के लिए
राख के ढेर से कुछ आग निकाली जाए
लोग ऐसे भी कई जीते हैं इस बस्ती में
जैसे मजबूरी में इक रस्म निभा ली जाए
अब तो शायद न कोई रंग चढ़ेगा इस पर
खून से रंग के ये तस्वीर सजा ली जाए
सुमित्रा!
अपने ही हाथों में पतवार सम्हाली जाए
तब तो मुमकिन है कि ये नाव बचा ली जाए
और कोई उपाय नहीं। अप्प दीपो भव! अपने दीये खुद बनो। पंडितपुरोहितों से क्या पूछना है?
लोग ऐसे भी कई जीते हैं इस बस्ती में
जैसे मजबूरी में इक रस्म निभा ली जाए
पंडितपुरोहितों से पूछ कर जीओ तो बस रस्म की तरह जीओगेएक औपचारिकता, एक ढोंग, एक पाखंड, एक शिष्टाचार। और परमात्मा से नाते प्रेम के हो सकते हैं, शिष्टाचार के नहीं।
और फिर सुमित्रा, मेरा रंग तुझ पर चढ़ गया, अब कोई और रंग चढ़ेगा नहीं।
अब तो शायद न कोई रंग चढ़ेगा इस पर
खून से रंग के ये तस्वीर सजा ली जाए
ये गैरिक रंग, यह मेरी प्रीति का रंग, यह सुबह कर रंग, यह प्राची का रंग, यह फूलों का रंग, यह वसंत का रंगएक बार चढ़ जाए, फिर इस पर कोई और रंग नहीं चढ़ सकता है।

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