दैर वीरां है, हरम है बेखरोश
बरहमन चुप है, मोअज्जन है खामोश
सोज है अशलोक में बाकी न साज
अब वो खुत्वे में न हिद्दत है न जोश
हो गई बेसूद तलकीने-सवाब
अब दिलाएं भी तो क्या खोफै अजाब
अब हरीफे-शेख कोई भी नहीं
खत्म है अब हर एक मोजू-ए-खिताब
आज मधम-सी है आवाजे दरूद,
आज जलता ही नहीं मंदिर में ऊद
क्या कयामत है यकायक हो गया
महफिले जहाद पर तारी जमूद
रब्बेबर हक खालिके-आली जनाब
हो गए अपने मिशन में कामयाब
सिलसिला रूश्दो हिदायत का है खत्म
आसमां से अब न उतरेगी किताब
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया।
यह उस दिन की कविता है, जिस दिन शैतान मर गया। शैतान मर गया तो क्या हुआ?
मर गया ए बाय शैतां मर गया!
उस दिन यह हुआः दैर वीरां है! मंदिर खाली पड़े हैं। शैतान ही मर गया तो मंदिर में भगवान की क्या जरूरत रही!
दैर वीरां है, हरम है बेखरोश
मस्जिद शांत है; अब कोई अजान नहीं देता। शैतान ही मर गया तो अब भगवान की अजान भी कौन दे! सभी तरफ भगवान का राज्य हो गया। संघर्ष ही समाप्त हो गया।
दैर वीरां है, हरम है बेखरोश
बरहमन चुप है मोअज्जन है खामोश
अजान देनेवाले चुप हो गए हैं और ब्राह्मण अब मंत्रों का पाठ नहीं करते हैं। अब किसकी पूजा, किसका पाठ!
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया
सोज है अशलोक में बाकी न साज।
अब न तो श्लोक में बल है, न संगीत है, न उत्साह है।
अब वो खुत्वे में न हिद्दत है न जोश
अब धार्मिक भाषण में वह गरमी भी न रही।
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया
शैतान ही मर जाए. . . जिस दिन अंधेरा मर जाएगा, उस दिन रोशनी में क्या मजा रह जाएगा! जिस दिन बीमारी मर जाएगी उस दिन स्वास्थ्य में क्या खूबी रह जाएगी! जिस दिन कांटे होंगे ही नहीं, उस दिन फूल की प्रशंसा में गीत कौन गाएगा!
“हो गयी बेसूद तकलीने-सवाब।
अब दिलाएं भी तो क्या खोफै अजाब।
जिंदगी से सब पाप मिट गए अब लोगों को डराएं भी पाप से तो कैसे डराएं!
अब हरीफे-शेख कोई भी नहीं!
अब अच्छाई का कोई दुश्मन ही नहीं है। अब ज्ञानी का कोई दुश्मन ही नहीं है।
खत्म है हर एक मोजू-ए-खिताब
अब तो लोगों को संबोधित करने का कोई विषय ही न बचा।
मर गया ए बाय शैतां मर गया!
आज अधम सी है आवाजे-दरूद
आज पूजा-पाठ बड़ा मद्धम हो गया। मरा-मरा! श्वास टिकी-टिकी–अब गयी तब गयी!
आज मधम-सी है आवाजे दरूद
आज जलता ही नहीं है मंदिर में ऊद।
अब कोई उद्बत्ती नहीं जलाता, अब कोई धूप नहीं जलाता मंदिर में। परमात्मा की प्रार्थना अब नहीं होती। अब थालियां नहीं सजतीं आरती की। अब कोई फूल लेकर मंदिर में पूजा के लिए नहीं आता। किसकी अर्चना!
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया।
क्या कयामत है यकायक हो गया
यह क्या हो गया?
महफिले जह्हाद पर तारी जमूद!
यह भले लोगों की जबान एकदम बंद क्यों हो गयी? ये धार्मिक लोग एकदम चुप क्यों हो गए? ये धार्मिक लोगों की जबान पर ताले क्यों पड़ गए? यह क्या गजब हो गया!
रब्बेबर हक . . . हे परमात्मा! खालिके-आली जनाब! हो गए अपने मिशन में कामयाब। भगवान अपने मिशन में सफल हो गया। मर गया ऐ बाय शैतां मर गया। शैतान मर गया, भगवान अपने मिशन में सफल हो गए–इस कारण अब मंदिर-मस्जिद चुप पड़े हैं।
सिलसिला रूश्दो हिदायत का है खत्म
अब उपदेश की कोई जरूरत न रही।
आसमां से अब न उतरेगी किताब।
अब न वेद उतरेगी, न इंजील, न कुरान।
सिलसिला रूश्दो हिदायत का है खत्म
आसमां से अब न उतरेगी किताब
अब मर गया ए बाय शैतां मर गया।
…………………………………………………………………
न फलक पर कोई तारा, न जमीं पर जुगनू
जो किरन नूर की है, मात हुई जाती है,
कारगर योरिशे जुलमात हुई है कितनी
क्या हमेशा के लिए रात हुई जाती है?
……………………………………………………..
कुछ बदला नहीं है। सब वैसा ही है।
ये बरसता हुआ मौसम, ये-शबे तीरोत्तार
किसी मद्धम से सितारे की जिया भी तो नहीं
उफ ये वीरानी-ए-माहौल-ये वीरानी-ए-दिल
आसमानों से कभी नूर भी बरसा होगा
बर्के इलहाम भी लहरा गई होगी शायद
लेकिन अब दीद-ए-हसरत से सू-ए-अर्श न देख
अब वहां एक अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं
देख इस फर्श को जो जुल्मते-शब के बावस्फ
रोशनी से अभी महरूम नहीं है शायद
इकन इक जर्रा यहां अब भी दमकता होगा
कोई जुगनू किसी गोशे में चमकता होगा
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती
किसी जांबाज के माथे पर शहादत का जलाल
किसी मजबूर के सीने में बगावत की तरंग
किसी दोशीजा के ओठों पै तबस्सुम की लकीर
कल्बे-उश्शाक में महबूब से मिलने की उमंग
दिले जुहाद में नाकरद गुनाहों की खलिश
दिल में एक फाहशा के पहली मोहब्बत का ख्याल
कहीं एहसास का शोला ही फरोजां होगा
कहीं अफकार की कंदील ही रोशन होगी
कोई जुगनू कोई जर्रा तो दमकता होगा
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती।
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती!
……………………………………………………………………
है अदूह मुसर्रत का शेख हो गया बरहम
हाथ में अगर खाली जाम भी लिया मैंने।
………………………………………………….
अब किसी को क्या बतलाऊं दिल पे अपने क्या गुजरी।
जिंदगी फरीजा थी और जी लिया मैंने।
…………………………………………………………………
वो जिन्हें दावा-ए-अनलहक था
खून से अपने खेल कर होली
कौल पर अपने जान हार गए
सर से कर्जे-अता उतार गए
मुद्दई याने-सरकशी अब भी
गीतदारो-रसन के गाते हैं
नश्शा-ए-मैं जब बहकते हैं
सू-ए-मक्तल कदम बढ़ाते हैं
लेकिन अकसर ये लोग मक्तल से
बसलामत ही लौट आते हैं
कब नजस खून से कोई, अपनी
तेग को दागदार करता है।
वो जिन्हें दावा-ए अनलहक था!. . .
मंसूर अलहिल्लास–ऐसे लोग जिन्होंने कहा अनलहक; जिन्होंने कहा मैं सत्य हूं; जिन्होंने कहा अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं; जिन्होंने सत्य का ऐसा दावा किया था; जो सत्य के ऐसे दावेदार थे।
वो जिन्हें दावा-ए-अनलहक था
खून से अपने खेल कर होली
कौल पर अपने जान हार गए
सर से कर्जे-अता उतार गए
उन्होंने सारा कर्ज उतार दिया संसार का। वे अपने खून से होली खेल गए। उन्होंने सत्य के लिए अपनी जान दे दी। सत्य के लिए कुछ भी दिया जा सकता है। सत्य के लिए सब कुछ दिया जा सकता।
मुद्दई याने-सरकशी अब भी।. . . लेकिन लोग हैं अभी भी जो कहते हैं कि हम भी सिर कटा सकते हैं; जो कहते हैं हम भी दावेदार हैं शहादत के।
मुद्दई याने-सरकशी अब भी
गीतदारो-रसन के गाते हैं
वे अब भी कहते हैं कि हम भी उसी दशा में हैं, जहां मंसूर थे। नशा-ए-मैं में जब बहकते हैं. . .। और जब कभी शराब पी लेते हैं तो बड़ी ऊंची बातें करते हैं। मंसूर ने भी एक शराब पी थी। वह शराब आकाश से उतरती है। या वह शराब आत्मा की गहनता में ढाली जाती है। और ये जाकर मयखाने में शराब पी आते हैं।
गीतोदारो-रसन के गाते हैं
नशा-ए-मैं में जब बहकते हैं
सू-ए मक्तल कदम बढ़ाते हैं
और जब शराब के नशे में थोड़े बहक जाते हैं, भूल जाते हैं, होश खो देते हैं–तो कहते हैं : हम जाते हैं शहादत को। लेकिन अकसर ये लोग मकतल से बसलामत ही लौट आते हैं। लेकिन शहादत-बहादत इनकी कभी होती नहीं। इधर व उधर नाली में गिर-गिरा कर सुबह अपने घर वापिस आ जाते हैं।
कब नजस खून से कोई, अपनी
तेग को दागदार करता है!
………………………………………………………….
हकीरो-नातुवां तिन्का
हवा के दोश पर पर्रां,
समझता था कि बहरो-बर पर उसकी हुक्मरानी है
मगर झोंका हवा का एक अलबेला
तलव्वुत केश बेपरवा
जब उसके जी में आए रुख पलट जाए
हवा आखिर हवा है, कब किसी का साथ देती है
हवा तो बेवफा है, कब किसी का साथ देती है!
हवा पलटी बुलंदी का फुसूं टूटा,
हकीरो-नातुवां तिन्का,
पड़ा है खाके-पस्ती पर
खुदा जाने कोई राहगीरे-बेपरवाह
जब अपने पांव से उसको मसलता है
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बरहमन चुप है, मोअज्जन है खामोश
सोज है अशलोक में बाकी न साज
अब वो खुत्वे में न हिद्दत है न जोश
हो गई बेसूद तलकीने-सवाब
अब दिलाएं भी तो क्या खोफै अजाब
अब हरीफे-शेख कोई भी नहीं
खत्म है अब हर एक मोजू-ए-खिताब
आज मधम-सी है आवाजे दरूद,
आज जलता ही नहीं मंदिर में ऊद
क्या कयामत है यकायक हो गया
महफिले जहाद पर तारी जमूद
रब्बेबर हक खालिके-आली जनाब
हो गए अपने मिशन में कामयाब
सिलसिला रूश्दो हिदायत का है खत्म
आसमां से अब न उतरेगी किताब
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया।
यह उस दिन की कविता है, जिस दिन शैतान मर गया। शैतान मर गया तो क्या हुआ?
मर गया ए बाय शैतां मर गया!
उस दिन यह हुआः दैर वीरां है! मंदिर खाली पड़े हैं। शैतान ही मर गया तो मंदिर में भगवान की क्या जरूरत रही!
दैर वीरां है, हरम है बेखरोश
मस्जिद शांत है; अब कोई अजान नहीं देता। शैतान ही मर गया तो अब भगवान की अजान भी कौन दे! सभी तरफ भगवान का राज्य हो गया। संघर्ष ही समाप्त हो गया।
दैर वीरां है, हरम है बेखरोश
बरहमन चुप है मोअज्जन है खामोश
अजान देनेवाले चुप हो गए हैं और ब्राह्मण अब मंत्रों का पाठ नहीं करते हैं। अब किसकी पूजा, किसका पाठ!
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया
सोज है अशलोक में बाकी न साज।
अब न तो श्लोक में बल है, न संगीत है, न उत्साह है।
अब वो खुत्वे में न हिद्दत है न जोश
अब धार्मिक भाषण में वह गरमी भी न रही।
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया
शैतान ही मर जाए. . . जिस दिन अंधेरा मर जाएगा, उस दिन रोशनी में क्या मजा रह जाएगा! जिस दिन बीमारी मर जाएगी उस दिन स्वास्थ्य में क्या खूबी रह जाएगी! जिस दिन कांटे होंगे ही नहीं, उस दिन फूल की प्रशंसा में गीत कौन गाएगा!
“हो गयी बेसूद तकलीने-सवाब।
अब दिलाएं भी तो क्या खोफै अजाब।
जिंदगी से सब पाप मिट गए अब लोगों को डराएं भी पाप से तो कैसे डराएं!
अब हरीफे-शेख कोई भी नहीं!
अब अच्छाई का कोई दुश्मन ही नहीं है। अब ज्ञानी का कोई दुश्मन ही नहीं है।
खत्म है हर एक मोजू-ए-खिताब
अब तो लोगों को संबोधित करने का कोई विषय ही न बचा।
मर गया ए बाय शैतां मर गया!
आज अधम सी है आवाजे-दरूद
आज पूजा-पाठ बड़ा मद्धम हो गया। मरा-मरा! श्वास टिकी-टिकी–अब गयी तब गयी!
आज मधम-सी है आवाजे दरूद
आज जलता ही नहीं है मंदिर में ऊद।
अब कोई उद्बत्ती नहीं जलाता, अब कोई धूप नहीं जलाता मंदिर में। परमात्मा की प्रार्थना अब नहीं होती। अब थालियां नहीं सजतीं आरती की। अब कोई फूल लेकर मंदिर में पूजा के लिए नहीं आता। किसकी अर्चना!
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया।
क्या कयामत है यकायक हो गया
यह क्या हो गया?
महफिले जह्हाद पर तारी जमूद!
यह भले लोगों की जबान एकदम बंद क्यों हो गयी? ये धार्मिक लोग एकदम चुप क्यों हो गए? ये धार्मिक लोगों की जबान पर ताले क्यों पड़ गए? यह क्या गजब हो गया!
रब्बेबर हक . . . हे परमात्मा! खालिके-आली जनाब! हो गए अपने मिशन में कामयाब। भगवान अपने मिशन में सफल हो गया। मर गया ऐ बाय शैतां मर गया। शैतान मर गया, भगवान अपने मिशन में सफल हो गए–इस कारण अब मंदिर-मस्जिद चुप पड़े हैं।
सिलसिला रूश्दो हिदायत का है खत्म
अब उपदेश की कोई जरूरत न रही।
आसमां से अब न उतरेगी किताब।
अब न वेद उतरेगी, न इंजील, न कुरान।
सिलसिला रूश्दो हिदायत का है खत्म
आसमां से अब न उतरेगी किताब
अब मर गया ए बाय शैतां मर गया।
…………………………………………………………………
न फलक पर कोई तारा, न जमीं पर जुगनू
जो किरन नूर की है, मात हुई जाती है,
कारगर योरिशे जुलमात हुई है कितनी
क्या हमेशा के लिए रात हुई जाती है?
……………………………………………………..
कुछ बदला नहीं है। सब वैसा ही है।
ये बरसता हुआ मौसम, ये-शबे तीरोत्तार
किसी मद्धम से सितारे की जिया भी तो नहीं
उफ ये वीरानी-ए-माहौल-ये वीरानी-ए-दिल
आसमानों से कभी नूर भी बरसा होगा
बर्के इलहाम भी लहरा गई होगी शायद
लेकिन अब दीद-ए-हसरत से सू-ए-अर्श न देख
अब वहां एक अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं
देख इस फर्श को जो जुल्मते-शब के बावस्फ
रोशनी से अभी महरूम नहीं है शायद
इकन इक जर्रा यहां अब भी दमकता होगा
कोई जुगनू किसी गोशे में चमकता होगा
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती
किसी जांबाज के माथे पर शहादत का जलाल
किसी मजबूर के सीने में बगावत की तरंग
किसी दोशीजा के ओठों पै तबस्सुम की लकीर
कल्बे-उश्शाक में महबूब से मिलने की उमंग
दिले जुहाद में नाकरद गुनाहों की खलिश
दिल में एक फाहशा के पहली मोहब्बत का ख्याल
कहीं एहसास का शोला ही फरोजां होगा
कहीं अफकार की कंदील ही रोशन होगी
कोई जुगनू कोई जर्रा तो दमकता होगा
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती।
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती!
……………………………………………………………………
है अदूह मुसर्रत का शेख हो गया बरहम
हाथ में अगर खाली जाम भी लिया मैंने।
………………………………………………….
अब किसी को क्या बतलाऊं दिल पे अपने क्या गुजरी।
जिंदगी फरीजा थी और जी लिया मैंने।
…………………………………………………………………
वो जिन्हें दावा-ए-अनलहक था
खून से अपने खेल कर होली
कौल पर अपने जान हार गए
सर से कर्जे-अता उतार गए
मुद्दई याने-सरकशी अब भी
गीतदारो-रसन के गाते हैं
नश्शा-ए-मैं जब बहकते हैं
सू-ए-मक्तल कदम बढ़ाते हैं
लेकिन अकसर ये लोग मक्तल से
बसलामत ही लौट आते हैं
कब नजस खून से कोई, अपनी
तेग को दागदार करता है।
वो जिन्हें दावा-ए अनलहक था!. . .
मंसूर अलहिल्लास–ऐसे लोग जिन्होंने कहा अनलहक; जिन्होंने कहा मैं सत्य हूं; जिन्होंने कहा अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं; जिन्होंने सत्य का ऐसा दावा किया था; जो सत्य के ऐसे दावेदार थे।
वो जिन्हें दावा-ए-अनलहक था
खून से अपने खेल कर होली
कौल पर अपने जान हार गए
सर से कर्जे-अता उतार गए
उन्होंने सारा कर्ज उतार दिया संसार का। वे अपने खून से होली खेल गए। उन्होंने सत्य के लिए अपनी जान दे दी। सत्य के लिए कुछ भी दिया जा सकता है। सत्य के लिए सब कुछ दिया जा सकता।
मुद्दई याने-सरकशी अब भी।. . . लेकिन लोग हैं अभी भी जो कहते हैं कि हम भी सिर कटा सकते हैं; जो कहते हैं हम भी दावेदार हैं शहादत के।
मुद्दई याने-सरकशी अब भी
गीतदारो-रसन के गाते हैं
वे अब भी कहते हैं कि हम भी उसी दशा में हैं, जहां मंसूर थे। नशा-ए-मैं में जब बहकते हैं. . .। और जब कभी शराब पी लेते हैं तो बड़ी ऊंची बातें करते हैं। मंसूर ने भी एक शराब पी थी। वह शराब आकाश से उतरती है। या वह शराब आत्मा की गहनता में ढाली जाती है। और ये जाकर मयखाने में शराब पी आते हैं।
गीतोदारो-रसन के गाते हैं
नशा-ए-मैं में जब बहकते हैं
सू-ए मक्तल कदम बढ़ाते हैं
और जब शराब के नशे में थोड़े बहक जाते हैं, भूल जाते हैं, होश खो देते हैं–तो कहते हैं : हम जाते हैं शहादत को। लेकिन अकसर ये लोग मकतल से बसलामत ही लौट आते हैं। लेकिन शहादत-बहादत इनकी कभी होती नहीं। इधर व उधर नाली में गिर-गिरा कर सुबह अपने घर वापिस आ जाते हैं।
कब नजस खून से कोई, अपनी
तेग को दागदार करता है!
………………………………………………………….
हकीरो-नातुवां तिन्का
हवा के दोश पर पर्रां,
समझता था कि बहरो-बर पर उसकी हुक्मरानी है
मगर झोंका हवा का एक अलबेला
तलव्वुत केश बेपरवा
जब उसके जी में आए रुख पलट जाए
हवा आखिर हवा है, कब किसी का साथ देती है
हवा तो बेवफा है, कब किसी का साथ देती है!
हवा पलटी बुलंदी का फुसूं टूटा,
हकीरो-नातुवां तिन्का,
पड़ा है खाके-पस्ती पर
खुदा जाने कोई राहगीरे-बेपरवाह
जब अपने पांव से उसको मसलता है
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