Wednesday, 3 June 2015

हंसा तो मोती चूने–(संत-लाल) ओशो– प्रवचन–8

                                

कल मैं एक कविता पढ़ रहा था
मुक्ति मरण, बंधन है जीवन!
श्रमिक विहग देखे हैं प्रतिदिन
भू से नभ तक दौड़ लगाते!
बंध ओ तिनकों के बंधन में,
वे पुनरपि नीड़ों में आते!
बार -बार कह उठता है मन,
मुक्ति मरण, बंधन है जीवन!
सरिता तब तक ही सरिता है,
जब तक तट का मिले सहारा!
बंधन टूटे कौन कहे फिर- सरिता,
कहते जल की धारा,
बंधन सौम्य रूप आकर्षण!
मुक्ति मरण, बंधन है जीवन!
बंधन सरल स्नेह -बंधन पर,
अगणित बार मुक्ति म वारूं।
हार अगर यह है जीवन की,
जन्म- जन्म यों ही मैं हारू!
बंधन जीवन का अवलंबन,
मुक्ति मरण, बंधन है जीवन!
तुम चाहो तो अच्छी- अच्छी कविताएं गढ़ सकते हो। अच्छे अच्छे विचार के पीछे इस भ्रांतधारणा को छिपा ले सकते हो। तुम कह सकते हो कि सरिता सागर में उतर कर खो जायेगी, फायदा क्या उतरने से?
सरिता तब तक ही सरिता है,
जब तक तट का मिले सहारा!
बंधन टूटे कौन कहे फिर सरिता,
कहते जल की धारा
बंधन सौम्य रूप आकर्षण!
मुक्ति मरण, बंधन है जीवन!
============================
सुलभ तेरी चाह है,
पर तू कठिन।
पर कर न पाया,
चाह का तेरी शमन
चाह बीती उमर,
पर तुम न आये।
मृत्यु जीवन में झलकने लग गई
पर तुम न आये।
अगर चाहते हो कि परमात्मा आये तो चाह को भी जाने दो। यह मांग भी मत उठाओ। यह शर्त भी मत लगाओ। ज्यों -ज्यों तुम्हें बनाया अपना, त्यों -त्यों तुम अनजान बन गए!
-ऐसा जीवन का गणित है। यह चाह तो मैंकह ही भाव है। यह चाह तो ममता ही है-परमात्मा मेरा हो जाये, मेरी मुट्ठी में हो जाये। यह अहंकार की अंतिम सूक्ष्म प्रक्रिया है। सावधान! सावचेत!
ज्यों -ज्यों तुम्हें बनाया अपना,
त्यों -त्यों तुम अनजान बन गए!
मानव की सामर्थ्य नहीं है
मानव की अवहेला कर दे!
ओ अभिमानी इसीलिए क्या
तुम निर्मम पाषाण बन गये!
ज्यों -ज्यों तुम्हें बनाया अपना,
त्यों -त्यों तुम अनजान बन गए!
युग -युग तुम्हें सजीव बनाकर
अक्षत, रोली, फूल चढ़ाये!
किंतु दान देने की बेला,
तुम तो फिर निष्प्राण बन गये!
ज्यों -ज्यों तुम्हें बनाया अपना, त्यों -त्यों तुम अनजान बन गए!
चाहा कब था पलकों से,
बाहर नयनों का आए पानी!
चाहा कब था पलकों से
बाहर नयनों आये पानी
पर उर के उदगार अधर पर
आते आते गान बन गये!
ज्यों -ज्यों तुम्हें बनाया अपना, त्यों -त्यों तुम अनजान बन गए!
परमात्मा को अपना बनाना हो तो मैंको मिटाना पड़ता है। नहीं तो परमात्मा और और अनजान बनता जाता जै। जब तक मैं है तब तक दूरी है। मैंहैं तब तक दूरी है। मैंके अतिरिक्त और कोई दूरी नहीं।
तुम हृदय के पास हो
है पास जितनी सांस ये,
दूर हो तुम दूर जितनी
चिर मिलन की आस है!
तुम मधुर हो मधुर जितनी
प्रीति की मृदु भावना,
किंतु कटु इतने कि जितनी
स्वार्थों की साधना!
तुम सरल हो सरल जितनी
शिशु हृदय की भावना,
तुम कुटिल हो कुटिल जितनी
है कपट की कामना!
तुम विकल हो विकल जितनी
मृदु -मिलन की कामना,
शांत हो तुम शांत जितनी
है विरागी भावना!
तुम करुण हो करुण जितनी
विफल आंसू धार है,
तुम निठुर हो निठुर जितना
मृत्यु का प्रहार है!
तुम हृदय के पास हो
है पास जितनी सांस ये,
दूर हो तुम दूर जितनी
चिर मिलन की आस है!
===================================
 

No comments:

Post a Comment