Friday, 5 June 2015

अजहू चेत गवांर (संत पलटूदास) प्रवचन–12

क्या मिला तुमको बना मुझको अनाश्रित दीन यों,
चाटते अरमान अपना ही लहू रहते सदा
आमरण जैसे विषम संघर्ष ही संपूर्ण है
एक क्षण का भी नहीं विश्राम प्राणों को बदा
क्या विफलता ही हुई साकार मेरे जन्म में?
व्यर्थता ही व्यर्थता मेरी समूची संपदा?
क्या मिला तुमको भला देकर मुझे इतनी जलन?
जो अभावों से भरा जीवन जलाए जा रही
क्यों बना दी जिंदगी मेरी दहकती मरुधरा?
एक जल की क्षीण धारा भी नहीं जिसमें बही
स्वप्न तो इतने दिए, जिनकी पूरन की बात क्या
बात भी जिनके दहन की थी कभी वश की नहीं
क्या मिला मुझको बना निरुपाय निःसंबंध निपट?
एक भी विश्वास मेरा जी न पाया दो घड़ी,
एक पल भी राही न जीवन के कठिन पथ पर मिला
दृष्टि जिसकी ठोकरों से तर-बतर मुझ पर पड़ी
क्या मिला तुमको समय की रेत पर जो रह गयी,
लाश मेरी चिर-उपेक्षित साधना की अध-घड़ी?
क्या विफलता ही हुई साकार मेरे जन्म में?
व्यर्थता ही व्यर्थता मेरी समूची संपदा?
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पी जा हर अपमान, और कुछ चारा भी तो नहीं
तूने स्वाभिमान से जीना चाहा, यही गलत था
कहां पक्ष में तेरे किसी समझवाले का मत था
केवल तेरे ही अधरों पर कड़वा स्वाद नहीं है,
सब के अहंकार टूटे हैं, तू अपवाद नहीं है।
तेरा असफल हो जाना तो पहले से ही तय था
तूने कोई समझौता स्वीकारा भी तो नहीं
कैसे तू रहनुमा बनेगा इन पागल भीड़ों का
तेरे पास लुभानेवाला नारा भी तो नहीं,
माथे से हर शिकन पोंछ दे, आंखों से हर आंसू
पूरी बाजी देख, अभी तू हारा भी तो नहीं।
यह अहंकार हारता है, हारता है; फिर भी तुमसे कहता जाता हैः माथे से हर शिकन पोंछ दे, आंखों से हर आंसू। पूरी बाजी देख, अभी तू हारा भी तो नहीं।अभी कहां पूरी हार हुई है? अभी रास्ता है, अभी अहंकार है; अभी और लड़ ले। एक और दांव। एक और बाजी। शायद जीत जाए।
अहंकार आशा को फुसलाए चला जाता है।
और अपमान क्यों होता है जीवन में? क्योंकि सम्मान की आकांक्षा है।
पी जा हर अपमान, और कुछ चारा भी तो नहीं।
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चाहे कितनी तपन सहे तन, चाहे कितनी घुटन सहे मन
किंतु दर्द को ओठों पर आजाने का अधिकार नहीं है
कण-कण में फागुनवा नाचे, खेत-खेत में सरसों फूली
अमराई में कूके कोयल, पछवा डोले भूली-भूली,
मैं हूं ऐसा फूल कि जिसको सांझ सताए, भोर रुलाए
मधुऋतु में भी मुझको तो खिल पाने का अधिकार नहीं है।
पहले तो जीना चाहा, पर जीने का आधार छिन गया,
अब तो तिल-तिल कर जलना ही सांसों का व्यापार बन गया
बहका-बहका घूम रहा है तुमसे दूर पतंगा मन का
इसको मनचाही लौ पर जल जाने का अधिकार नहीं है।
झुलसी जाती कंचन काया, धूप उम्र की बढ़ती जाती
मुरझे जाते फूल थाल के, बुझती जाती वंदन-बाती,
मंदिर का दरवाजा मूंदे, कब से तुम रूठे बैठे हो,
मेरे हाथों को सांकल खटकाने का अधिकार नहीं है।
अपने ही हिसाब से तुमने शर्तें बना ली हैं कि तुम्हें रोने का अधिकार नहीं, कि तुम्हें सांकल खटकाने का अधिकार नहीं है! किसने तुम्हें कहा? कुछ न कर सको, कम से कम रो तो सकते हो! प्रार्थना नहीं आती, रोना भी भूल गए? रो तो सकते हो! आंसू तो गिर सकते हैं आंखों से झर-झर! हो जाएगी प्रार्थना।
कभी घड़ी भर बैठकर समग्र के समक्ष रो लेना।
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प्रकृति ने सींचा पुरुष को फिर सुरभि-धन से,
शरण अशरण को मिली तन मुक्त बंधन से!
ये पंक्तियां तो प्रेम के लिए लिखी गयी हैं। लेकिन ये पंक्तियां प्रार्थना के लिए भी उतनी ही सच हैं, सिर्फ तल बदल जाएगा।
प्रकृति ने सींचा पुरुष को फिर सुरभि धन से,
शरण अशरण को मिली तन-मुक्त बंधन से!
दिग-दिगंतों में दिखे फिर इंद्रधनुषी रंग,
मलय-गंधा रेणु उड़ती फिर पवन के संग;
ज्योत्स्ना चर्चित निशा की किंकिणी बजती,
रतिश्रांता देह-प्रतिमा तोड़ती अंग-अंग
हेम शिखरा वर्तिका के किरणवाही कण,
कर रहे हैं फिर रस-प्लावित स्नेह-वर्षण से।
तन मुक्त बंधन से. . . !!
प्रणयमुखरा सजल वाणी फिर लगी कंपने,
स्वप्न-चालित पलक-पाटल फिर लगे झंपने
भुवन जेता मदन-मादन कर रहा परवश,
संयोगिता श्वास-सरि में फिर तिरे सपने;
संपुटित शब्दार्थ जैसे परिमिता बाहें,
बांधती आकाश अभिमंत्रित समर्पण से!
तन मुक्त बंधन से. . . !!
जैसे प्रेम में तन मुक्त हो जाता है बंधन से. . .
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