थोड़ा बाहर का,
थोड़ा भीतर का।
जो कभी खींची नहीं गयी
ऐसी शराब है एक
जिसकी तरफ
कभी कोई ताक नहीं सका
ऐसी आब है एक
मैं इस बिना खींची
शराब को
पीता हूं
मैं इस बिना देखी
आब को जीता हूं
थोड़ा भीतर का।
जो कभी खींची नहीं गयी
ऐसी शराब है एक
जिसकी तरफ
कभी कोई ताक नहीं सका
ऐसी आब है एक
मैं इस बिना खींची
शराब को
पीता हूं
मैं इस बिना देखी
आब को जीता हूं
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रेत की नाव, झाग के मांझी
काठ की रेल, सीप के हाथी
हल्की—भारी प्लास्टिक की कलें
मोम के चाक जो रुके न चलें
राख के खेत, धूल के खलिहान
भाप के पैरहन, धुएं के मकान
नहर जादू की, पुल दुआओं के
झुनझुने चंद योजनाओं के
सूत के चेले, मूंज के उस्ताद
तेश दफ्ती के, काच के फरिहाद
आलिम आटे के, और रवे के इमाम
और पन्नी के शायराने—कराम
ऊन के तीर, रुई की शमशीर
सदर मिट्टी का और रबर के वजीर
अपने सारे खिलौने साथ लिए
दस्ते—खाली में कायनात लिए
दो सुतूनों में बौध के रस्सी
हम खुदा जाने कब से चलते हैं
न तो गिरते हैं न सम्हलते हैं
ऐसा सब झूठ है।
हम खुदा जाने कब से चलते हैं
न तो गिरते हैं न सम्हलते हैं
काठ की रेल, सीप के हाथी
हल्की—भारी प्लास्टिक की कलें
मोम के चाक जो रुके न चलें
राख के खेत, धूल के खलिहान
भाप के पैरहन, धुएं के मकान
नहर जादू की, पुल दुआओं के
झुनझुने चंद योजनाओं के
सूत के चेले, मूंज के उस्ताद
तेश दफ्ती के, काच के फरिहाद
आलिम आटे के, और रवे के इमाम
और पन्नी के शायराने—कराम
ऊन के तीर, रुई की शमशीर
सदर मिट्टी का और रबर के वजीर
अपने सारे खिलौने साथ लिए
दस्ते—खाली में कायनात लिए
दो सुतूनों में बौध के रस्सी
हम खुदा जाने कब से चलते हैं
न तो गिरते हैं न सम्हलते हैं
ऐसा सब झूठ है।
हम खुदा जाने कब से चलते हैं
न तो गिरते हैं न सम्हलते हैं
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रोज बढ़ता हूं जहा से आगे
फिर वहीं लौट के आ जाता हूं
बारहा तोड़ चुका हूं जिनको
इन्हीं दीवारों से टकराता हूं
रोज बसते हैं कई शहर नए
रोज धरती में समा जाते हैं
जलजलों में भी जरा—सी गर्मी
वो भी अब रोज ही आ जाते हैं
जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत
न कहीं धूप, न साया, न शराब
कितने अरमान हैं किस सहरा में
कौन रखता है मजारों का हिसाब
नब्ज बुझती भी भड़कती भी है
दिल का मामूल है घबराना भी
रात अंधेरे ने अंधेरे से कहा
एक आदत है जीए जाना भी
कौस इक रंग की होती है तुलूअ
एक ही चाल भी पैमाने की
गोशे—गोशे में खड़ी है मस्जिद
शक्ल क्या हो गयी मयखाने की
कोई कहता था समंदर हूं मैं
और मेरी जेब में कतरा भी नहीं
खैरियत अपनी लिखा करता हूं
अब तो तकदीर में खतरा भी नहीं
अपने हाथों को पढ़ा करता हूं
कभी कुरान, कभी गीता की तरह
चंद रेखाओं में सीमाओं में
जिंदगी कैद है सीता की तरह
राम कब लौटेंगे मालूम नहीं
काश, रावण ही कोई आ जाता
ऐसी बुरी दशा है—
राम कब लौटेंगे, मालूम नहीं
काश, रावण ही कोई आ जाता
फिर वहीं लौट के आ जाता हूं
बारहा तोड़ चुका हूं जिनको
इन्हीं दीवारों से टकराता हूं
रोज बसते हैं कई शहर नए
रोज धरती में समा जाते हैं
जलजलों में भी जरा—सी गर्मी
वो भी अब रोज ही आ जाते हैं
जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत
न कहीं धूप, न साया, न शराब
कितने अरमान हैं किस सहरा में
कौन रखता है मजारों का हिसाब
नब्ज बुझती भी भड़कती भी है
दिल का मामूल है घबराना भी
रात अंधेरे ने अंधेरे से कहा
एक आदत है जीए जाना भी
कौस इक रंग की होती है तुलूअ
एक ही चाल भी पैमाने की
गोशे—गोशे में खड़ी है मस्जिद
शक्ल क्या हो गयी मयखाने की
कोई कहता था समंदर हूं मैं
और मेरी जेब में कतरा भी नहीं
खैरियत अपनी लिखा करता हूं
अब तो तकदीर में खतरा भी नहीं
अपने हाथों को पढ़ा करता हूं
कभी कुरान, कभी गीता की तरह
चंद रेखाओं में सीमाओं में
जिंदगी कैद है सीता की तरह
राम कब लौटेंगे मालूम नहीं
काश, रावण ही कोई आ जाता
ऐसी बुरी दशा है—
राम कब लौटेंगे, मालूम नहीं
काश, रावण ही कोई आ जाता
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रात अंधेरे ने अंधेरे से कहा
एक आदत है जीए जाना भी
जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत
न कहीं धूप, न साया, न सराब
कितने अरमान हैं किस सहरा में
कौन रखता है मजारों का हिसाब
नब्ज बुझती भी भड़कती भी है
दिल का मामूल है घबराना भी
और दिल घबराए यह स्वाभाविक है; क्योंकि यहां हाथ कुछ लग नहीं रहा है। टटोलते—टटोलते थक गए हैं। मरुस्थल ही मरुस्थल है।
जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत
न कहीं धूप, न साया, न सराब
एक आदत है जीए जाना भी
जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत
न कहीं धूप, न साया, न सराब
कितने अरमान हैं किस सहरा में
कौन रखता है मजारों का हिसाब
नब्ज बुझती भी भड़कती भी है
दिल का मामूल है घबराना भी
और दिल घबराए यह स्वाभाविक है; क्योंकि यहां हाथ कुछ लग नहीं रहा है। टटोलते—टटोलते थक गए हैं। मरुस्थल ही मरुस्थल है।
जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत
न कहीं धूप, न साया, न सराब
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