नहीं कहीं मिलती है छांव!
नहीं कहीं रुकते हैं पांव!
राह अजानी, लोग अजाने,
जितने भी संयोग अजाने,
अनजाने से मिली मुझे जो
भूख अजानी, भोग अजाने!
एक भुलावा कडुवा -मीठा,
एक छलावा ठांव-कुठांव,
जिसको समझूं अपनी मंजिल
नहीं कहीं दिखता वह गांव,
नहीं कहीं रुकते है पांव!
किसे कहूं मैं अपना मीत?
किसे कहूं मैं अपनी जीत?
नित्य टूटते रहते सपने,
नित्य बिछडते रहते अपने,
एक जलन लेकर प्राणों में
मैं आया हूं केवल तपने!
वर्तमान हो या भविष्य हो
बन जाता है विवश अतीत।
और शून्य में लय हो जाते
सुख-दुख के ये जितने गीत!
किसे कहूं मैं अपना मीत?
किसे कहूं मैं अपनी जीत!
एक सांस है सस्मित चाह।
एक सांस है आह-कराह!
बडी प्रबल है गति की धारा।
मैं पथभूला, मैं पथहारा।
जिसको देखा वही विवश है-
किसको किसका कौन सहारा?
रंग-बिरंगे स्वप्न संजोए
मेरे उर का तमस अथाह-
ज्यों- ज्यों घटती जाती दूरी
त्यों -त्यों बढ़ती जाती राह!
एक सांस है सस्मित चाह,
एक सांस है आह-कराह!
कब बुझ पाई किसकी प्यास?
और सत्य कब हास -विलास?
नहीं यहां पर ठौर-ठिकाना।
सुख अनजाना, दुख अनजाना
पग-पग पर बुनता जाता है
काल-नियति का ताना-बाना!
मेरे आगे है मरीचिका।
मेरे अंदर है विश्वास,
जो कि मृत्यु पर चिरविजयी है
वह जीवन है मेरे पास!
मेरा जीवन केवल प्यास।
यही प्यास है हास -विलास!
नहीं कहीं मिलती है छांव।
नहीं कहीं रुकते हैं पांव!
राह अजानी, लोग अजाने,
जितने भी संयोग अजाने,
अनजाने से मिली मुझे जो
भूख अजानी, भोग अजाने!
एक भुलावा कडुवा -मीठा,
एक छलावा ठांव-कुठांव,
किसको समझूं अपनी मंजिल
नहीं कहीं दिखता वह गांव,
नहीं कहीं मिलती है छांव,
नहीं कहीं रुकते हैं पांव!
…………………………………..
नजर तुम्हारी जाली है,
सिक्का तो टकसाली है!
इस सिक्के को गढ़ा प्रकृति ने है धरती की माटी से।
इस सिक्के को गढ़ा पुरुष ने अपनी ही परिपाटी से।
इस सिक्के पर अंक पड़े हैं स्वयम नियति के हाथों से,
यह सिक्का तो चलता आया जनम- मरण की घाटी से!
इसे बजाओ, यह गाता है
गीत खुशी के, मातम के
इस सिक्के में दोष देखना
केवल खाम- ख्याली है!
सिक्का तो टकसाली है!
माल तुम्हारा खोटा है
यह ग्राहक तो बहुत खरा
यह ग्राहक पीठ बोलों पर मिसरी-सा घुल जाता है!
थोड़ी-सी ममता पाने को निज सर्वस्व लुटाता है!
जो छल-कपट देखते हो तुम वह तो सभी तुम्हारे हैं-
इस गाहक की सच्चाई से जनम-जनम का नाता है!
अपने अंदर की करुणा को
लो कर के तो परखो तुम!
इस गाहक का हाथ खुला है
इस गाहक का हृदय भरा!
तुम आए हो नए-नए।
यह तो हाट पुरानी है!
सोना -चादी, हीरा-मोती, कितने इसमें छले गए।
जीवन भर बटोरने वाले खाली हाथों चले गए!
सुख-दुख की यह हाट अनोखी, इसमें बिकता यश- अपयश
पाने वाले सदा पुराने, देने वाले नित्य नए!
तुम तो अपने में ही उलझे,
आंख खोल के देखो तो!
जो निज को जितना दे सकता
वह उतना ही ज्ञानी है!
यह तो हाट पुरानी है!
कितने चालाक
तुम बनो, दुनिया भोली- भाली है!
पल में रोना, पल में हंसना,
यह दुनिया तो सहज-सरल,
उत्सुकता अस्तित्व यहां पर,
जीवन तो है कौतूहल!
सत्य स्वप्न है, स्वप्न सत्य है-इन दोनों में अंतर क्या?
इने -गिने विश्वासों पर ही इस दुनिया की चहल-पहल!
जो मिलता है लेना होगा राजी से, नाराजी से!
अरे व्यर्थ की तीन- पाच यह और व्यर्थ की गाली है।
दुनिया भोली- भाली है!
नजर तुम्हारी जाली है
सिक्का तो टकसाली है!
नजर बदलनी है। जो तुम्हरे भीतर है, परम धन है। जरा भूल-चूक नहीं है। यह अस्तित्व जैसा होना चाहिए वैसा ही है; इसमें जरा भी विसंगति नहीं। यह अस्तित्व तो अपूर्व उत्सव है। तुम अंधे, तुम लंगड़े, तुम लूले। नाच न आवै आँगन टेढ़ा!
नजर तुम्हारी जाली है,
सिक्का तो टकसाली है!
इस सिक्के को गढ़ा प्रकृति ने है धरती की माटी से।
इस सिक्के को गढ़ा पुरुष ने अपनी ही परिपाटी से।
इस सिक्के पर अंक पसे हैं स्वयम नियति के हाथों से
यह सिक्का तो चलता आया जनम- मरण की घाटी से!
इस बजाओ, यह गाता है
गीत खुशी के, मातम के
इस सिक्के में दोष देखना
केवल खाम- ख्याली है!
सिक्का तो टकसाली है!
नजर तुम्हारी जाली है।
…………………………………………
बुझ गई न जो बन एक आह अधरों पर
ऐसी तो कोई चाह नहीं जीवन में!
मेरे पैरों को मिली थकन की सीमा
मेरे मस्तक को गुरुता की नादानी!
दिल में घिर आया करता एक धुआं-सा
आंखों में घिर आता है अकसर पानी!
अनजानी दुनिया का अनजाना कम है
अनजाना -सा ही सकल ज्ञान औ भ्रम है
अनजान दिशा का मैं अनजाना पंथी
केवल असफलता ही जानी-पहचानी!
खो गई न हो जो अंधकार में सहसा
ऐसी तो कोई राह नहीं जीवन में!
उल्लास-तरगों से जो अधर विचुबित
वे लिए हुए हैं चुभती जलन तृषा की
आंसू में उमड़ा जो अभाव का सागर
उसमें ही लहरें हैं छवि की, सुषमा की!
मेरे पीछ अगनित खंडहर के क्रंदन मेरे
आगे बस धुधला -सा सूनापन
यह राग-रंग, यह चहल-पहल सब कुछ है
पर अपने अंदर मैं कितना एकाकी!
पल- भर का जो अवलंब मुझे दे सकती
ऐसी तो कोई थाह नहब जीवन में!
जिसको देखा वह खोया अपनेपन में
जिसको पाया वह बेसुध यहां जलन में
पागल-सा मैंने दर -दर अलख जगाया
जिससे पूछा है वही एक उलझन में।
प्रत्येक मौन में कुछ घुटता-सा भय है
प्रति स्वर में कुछ कापता हुआ संशय है
कितने निःश्वासों से बोझिल है धरती
हैं डूब चुके कितने उच्छवास गगन में।
विचलित कर सकती जो कि नियति के कम को
ऐसी तो कोई आह नहीं जीवन में
इस जीवन में बचाने योग्य क्या है?
बुझ गई न जो बन एक अधरों पर
ऐसी तो कोई चाह नहीं जीवन में!
खो गई न हो जो अंधकार में सहसा
ऐसी ततो कोई राह नहीं जीवन में!
पल भर जो अवलंब मुझे दे सकती
ऐसी तो कोई थाह नहीं जीवन में!
विचलित कर सकती जो नियति के कम को
ऐसी तो कोई आह नहीं जीवन में
………………………………………………….
पीने दे! पीने दे ओ!
यौवन मदिरा का प्याला!
मत याद दिलाना कल की;
कल है कल आने वाला।
है आज उमंगों का युग-
तेरी मादक मधुशाला!
पीने दे जी भर रूपसि
अपने पराग की हाला!
ले कर अतृप्त तृष्णा को
आया हूं मैं दीवाना,
सीखा ही नहीं यहां है
थक जाना या छक जाना,
यह प्यास नहीं बूझने की
पी लेने दे मन माना,
बस मत कर देना रूपसि
‘बस करना’ है पर जाना।
………………………………………..
मानापमान हो इष्ट तुम्हें
मैं तो जीवन को देख रहा!
मैं देख रहा दानवता के
दुःसाहस के विकराल कृत्य,
मैं देख रहा बर्बरता का
भू की छाती पर नग्न नृत्य,
मैं देख रहा उठने वाली
अम्बर पर संसृति की उसांस,
मैं देख रहा यह मानवता
कितनी निर्बल कितनी अनित्य!
जमघट है रोने वालों का,
जमघट है गाने वालों का,
सब देने को लाए थे पर
जमघट है पाने वालों का,
कुछ बने लुटेरे लूट रहे
कुछ बने भिखारी लूट रहे है
जमा मिटाने को ही यह
जमघट मिट जाने वालों का
मैं जग को सुख देने वाले
जग के क्रन्दन को देख रहा
मानापमान हो इष्ट तुम्हें मैं
तो जीवन को देख रहा!
तुम साक्षी बनो।
…………………………………
नहीं कहीं रुकते हैं पांव!
राह अजानी, लोग अजाने,
जितने भी संयोग अजाने,
अनजाने से मिली मुझे जो
भूख अजानी, भोग अजाने!
एक भुलावा कडुवा -मीठा,
एक छलावा ठांव-कुठांव,
जिसको समझूं अपनी मंजिल
नहीं कहीं दिखता वह गांव,
नहीं कहीं रुकते है पांव!
किसे कहूं मैं अपना मीत?
किसे कहूं मैं अपनी जीत?
नित्य टूटते रहते सपने,
नित्य बिछडते रहते अपने,
एक जलन लेकर प्राणों में
मैं आया हूं केवल तपने!
वर्तमान हो या भविष्य हो
बन जाता है विवश अतीत।
और शून्य में लय हो जाते
सुख-दुख के ये जितने गीत!
किसे कहूं मैं अपना मीत?
किसे कहूं मैं अपनी जीत!
एक सांस है सस्मित चाह।
एक सांस है आह-कराह!
बडी प्रबल है गति की धारा।
मैं पथभूला, मैं पथहारा।
जिसको देखा वही विवश है-
किसको किसका कौन सहारा?
रंग-बिरंगे स्वप्न संजोए
मेरे उर का तमस अथाह-
ज्यों- ज्यों घटती जाती दूरी
त्यों -त्यों बढ़ती जाती राह!
एक सांस है सस्मित चाह,
एक सांस है आह-कराह!
कब बुझ पाई किसकी प्यास?
और सत्य कब हास -विलास?
नहीं यहां पर ठौर-ठिकाना।
सुख अनजाना, दुख अनजाना
पग-पग पर बुनता जाता है
काल-नियति का ताना-बाना!
मेरे आगे है मरीचिका।
मेरे अंदर है विश्वास,
जो कि मृत्यु पर चिरविजयी है
वह जीवन है मेरे पास!
मेरा जीवन केवल प्यास।
यही प्यास है हास -विलास!
नहीं कहीं मिलती है छांव।
नहीं कहीं रुकते हैं पांव!
राह अजानी, लोग अजाने,
जितने भी संयोग अजाने,
अनजाने से मिली मुझे जो
भूख अजानी, भोग अजाने!
एक भुलावा कडुवा -मीठा,
एक छलावा ठांव-कुठांव,
किसको समझूं अपनी मंजिल
नहीं कहीं दिखता वह गांव,
नहीं कहीं मिलती है छांव,
नहीं कहीं रुकते हैं पांव!
…………………………………..
नजर तुम्हारी जाली है,
सिक्का तो टकसाली है!
इस सिक्के को गढ़ा प्रकृति ने है धरती की माटी से।
इस सिक्के को गढ़ा पुरुष ने अपनी ही परिपाटी से।
इस सिक्के पर अंक पड़े हैं स्वयम नियति के हाथों से,
यह सिक्का तो चलता आया जनम- मरण की घाटी से!
इसे बजाओ, यह गाता है
गीत खुशी के, मातम के
इस सिक्के में दोष देखना
केवल खाम- ख्याली है!
सिक्का तो टकसाली है!
माल तुम्हारा खोटा है
यह ग्राहक तो बहुत खरा
यह ग्राहक पीठ बोलों पर मिसरी-सा घुल जाता है!
थोड़ी-सी ममता पाने को निज सर्वस्व लुटाता है!
जो छल-कपट देखते हो तुम वह तो सभी तुम्हारे हैं-
इस गाहक की सच्चाई से जनम-जनम का नाता है!
अपने अंदर की करुणा को
लो कर के तो परखो तुम!
इस गाहक का हाथ खुला है
इस गाहक का हृदय भरा!
तुम आए हो नए-नए।
यह तो हाट पुरानी है!
सोना -चादी, हीरा-मोती, कितने इसमें छले गए।
जीवन भर बटोरने वाले खाली हाथों चले गए!
सुख-दुख की यह हाट अनोखी, इसमें बिकता यश- अपयश
पाने वाले सदा पुराने, देने वाले नित्य नए!
तुम तो अपने में ही उलझे,
आंख खोल के देखो तो!
जो निज को जितना दे सकता
वह उतना ही ज्ञानी है!
यह तो हाट पुरानी है!
कितने चालाक
तुम बनो, दुनिया भोली- भाली है!
पल में रोना, पल में हंसना,
यह दुनिया तो सहज-सरल,
उत्सुकता अस्तित्व यहां पर,
जीवन तो है कौतूहल!
सत्य स्वप्न है, स्वप्न सत्य है-इन दोनों में अंतर क्या?
इने -गिने विश्वासों पर ही इस दुनिया की चहल-पहल!
जो मिलता है लेना होगा राजी से, नाराजी से!
अरे व्यर्थ की तीन- पाच यह और व्यर्थ की गाली है।
दुनिया भोली- भाली है!
नजर तुम्हारी जाली है
सिक्का तो टकसाली है!
नजर बदलनी है। जो तुम्हरे भीतर है, परम धन है। जरा भूल-चूक नहीं है। यह अस्तित्व जैसा होना चाहिए वैसा ही है; इसमें जरा भी विसंगति नहीं। यह अस्तित्व तो अपूर्व उत्सव है। तुम अंधे, तुम लंगड़े, तुम लूले। नाच न आवै आँगन टेढ़ा!
नजर तुम्हारी जाली है,
सिक्का तो टकसाली है!
इस सिक्के को गढ़ा प्रकृति ने है धरती की माटी से।
इस सिक्के को गढ़ा पुरुष ने अपनी ही परिपाटी से।
इस सिक्के पर अंक पसे हैं स्वयम नियति के हाथों से
यह सिक्का तो चलता आया जनम- मरण की घाटी से!
इस बजाओ, यह गाता है
गीत खुशी के, मातम के
इस सिक्के में दोष देखना
केवल खाम- ख्याली है!
सिक्का तो टकसाली है!
नजर तुम्हारी जाली है।
…………………………………………
बुझ गई न जो बन एक आह अधरों पर
ऐसी तो कोई चाह नहीं जीवन में!
मेरे पैरों को मिली थकन की सीमा
मेरे मस्तक को गुरुता की नादानी!
दिल में घिर आया करता एक धुआं-सा
आंखों में घिर आता है अकसर पानी!
अनजानी दुनिया का अनजाना कम है
अनजाना -सा ही सकल ज्ञान औ भ्रम है
अनजान दिशा का मैं अनजाना पंथी
केवल असफलता ही जानी-पहचानी!
खो गई न हो जो अंधकार में सहसा
ऐसी तो कोई राह नहीं जीवन में!
उल्लास-तरगों से जो अधर विचुबित
वे लिए हुए हैं चुभती जलन तृषा की
आंसू में उमड़ा जो अभाव का सागर
उसमें ही लहरें हैं छवि की, सुषमा की!
मेरे पीछ अगनित खंडहर के क्रंदन मेरे
आगे बस धुधला -सा सूनापन
यह राग-रंग, यह चहल-पहल सब कुछ है
पर अपने अंदर मैं कितना एकाकी!
पल- भर का जो अवलंब मुझे दे सकती
ऐसी तो कोई थाह नहब जीवन में!
जिसको देखा वह खोया अपनेपन में
जिसको पाया वह बेसुध यहां जलन में
पागल-सा मैंने दर -दर अलख जगाया
जिससे पूछा है वही एक उलझन में।
प्रत्येक मौन में कुछ घुटता-सा भय है
प्रति स्वर में कुछ कापता हुआ संशय है
कितने निःश्वासों से बोझिल है धरती
हैं डूब चुके कितने उच्छवास गगन में।
विचलित कर सकती जो कि नियति के कम को
ऐसी तो कोई आह नहीं जीवन में
इस जीवन में बचाने योग्य क्या है?
बुझ गई न जो बन एक अधरों पर
ऐसी तो कोई चाह नहीं जीवन में!
खो गई न हो जो अंधकार में सहसा
ऐसी ततो कोई राह नहीं जीवन में!
पल भर जो अवलंब मुझे दे सकती
ऐसी तो कोई थाह नहीं जीवन में!
विचलित कर सकती जो नियति के कम को
ऐसी तो कोई आह नहीं जीवन में
………………………………………………….
पीने दे! पीने दे ओ!
यौवन मदिरा का प्याला!
मत याद दिलाना कल की;
कल है कल आने वाला।
है आज उमंगों का युग-
तेरी मादक मधुशाला!
पीने दे जी भर रूपसि
अपने पराग की हाला!
ले कर अतृप्त तृष्णा को
आया हूं मैं दीवाना,
सीखा ही नहीं यहां है
थक जाना या छक जाना,
यह प्यास नहीं बूझने की
पी लेने दे मन माना,
बस मत कर देना रूपसि
‘बस करना’ है पर जाना।
………………………………………..
मानापमान हो इष्ट तुम्हें
मैं तो जीवन को देख रहा!
मैं देख रहा दानवता के
दुःसाहस के विकराल कृत्य,
मैं देख रहा बर्बरता का
भू की छाती पर नग्न नृत्य,
मैं देख रहा उठने वाली
अम्बर पर संसृति की उसांस,
मैं देख रहा यह मानवता
कितनी निर्बल कितनी अनित्य!
जमघट है रोने वालों का,
जमघट है गाने वालों का,
सब देने को लाए थे पर
जमघट है पाने वालों का,
कुछ बने लुटेरे लूट रहे
कुछ बने भिखारी लूट रहे है
जमा मिटाने को ही यह
जमघट मिट जाने वालों का
मैं जग को सुख देने वाले
जग के क्रन्दन को देख रहा
मानापमान हो इष्ट तुम्हें मैं
तो जीवन को देख रहा!
तुम साक्षी बनो।
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