Friday, 5 June 2015

अजहू चेत गवांर (संत पलटूदास) प्रवचन–18

कौन वह पुकार गई!
अंधियारे आंगन में दिवरा-सा बार गई
सूखे दो तिनकों में गुम-सुम-सा बैठा है
पांखों में ढांपे मुख जीवन से रूठा है
नीड़-विटप ठूंठा है
ऐसे मन-सुगना को चुगना-सा डार गई
कौन वह पुकार गई!
पेड़ों की फुनगी पर सिहरन अंधियारे की
टहनी पर सुगबुग है पंछी बनजारे की,
पंथी मनहारे की
सबकी मनचीती भिनसार को गुहार गई
कौन वह पुकार गई!
आंखों की शाखों पर आंसू का झूला है
ओठों के ढोले पर प्राण बहुत झूला है,
पैगों में भूला है
सांसों की छिटकी लट प्यास से संवार गई
कौन वह पुकार गई!
बेला के गजरेले सागर भी दौड़ा था
तट की चट्टानों ने फूल-फूल तोड़ा था
गति ने मुख मोड़ा था
रेत की गलबांही दे चुप-चुप दुलार गई
कौन वह पुकार गई!
रह-रह कर गिरते हैं जाले उदासी के
दुःख से धुंधवाए-से भाप की उसांसी-से
मैले-से, बासी-से
अंतस के मटियाले बासन खंगार गई
कौन वह पुकार गई!
सपनों के मड़वे पर, भावों के चौरे पर
आशा के बिरवे पर, प्यार के टकोरे पर
बोर के निहोरे पर
सरस रूप गंध के फुहारे फुहार गई
कौन वह पुकार गई!
ऐसी फुलचुगी को पाना भर जीवन है
बैठे जिस डाली पर उस में कंपन है
गीतों का नंदन है
मुट्ठी में बांधो तो पारे-सी पार गई
अंधियारे आंगन में दिवरा-सा बार गई
कौन वह पुकार गई!
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मेरी जां गो तुझे दिल से भुलाया जा नहीं सकता
मगर ये बात मैं अपनी जुबां पर ला नहीं सकता।
तुझे अपना बनाना मोजिबे राहत समझकर भी
तुझे अपना बना लूं, ये तसव्वर ला नहीं सकता।
हुआ है बारहा एहसास मुझको इस हकीकत का
तेरे नजदीक रह कर भी मैं तुझको पा नहीं सकता।
मेरे दस्ते-हवस की दस्तरस है जिस्म तक तेरे
समझता हूं कि दिल पै कब्जा पा नहीं सकता।
तेरे दिल की तमन्ना भी करूं तो किस भरोसे पर
मैं खुद दरगाह में तेरी यह तोहफा ला नहीं सकता।
मेरी मजबूरियों को भी बहुत कुछ दखल है इसमें
तुझी को मोरिदे-इलजाम मैं ठहरा नहीं सकता।
मैं तुझसे बढ़ कर अपनी आबरू को प्यार करता हूं
मैं अपनी इज्जतो-नामूस को ठुकरा नहीं सकता।
तेरे माहौल की पस्ती का ताना दूं तुझे क्यूंकर
मैं खुद माहौल से अपनी रिहाई पा नहीं सकता।
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जुर्म अगर हुस्ने-नजर है तो गुनहगार हूं मैं।
दावरा इसके सिवा मेरी खता कुछ भी नहीं
थी नज़र में मेरी, शादाबी-ए-जन्नत लेकिन
कितनी शादाब थी वो राहगुजर क्या कहिए!
दावरा तेरी मशीअत के तकाजों की कसम
वाकई दिल पै बड़ा जब्र किया था मैंने
मुझको मालूम था आवारा निगाही का मआल
लेकिन उस शोख का अफसूने नज़र क्या कहि!
दावरा! मेरी नज़र में थी तेरी शाने जलाल
लेकिन ऐ काश दिखा दूं तुझे उसका भी जमाल
दावरा! कितने दिल आवेज थे उसके खतोहाल
और फिर उस पै मेरा हुस्ने-नज़र क्या कहिए!
जुर्म अगर हुस्ने-नज़र है तो गुनहगार हूं मैं!
प्रेमी कह रहा है कि अगर सौंदर्य को देखनेवाली आंख में कोई जुर्म है तो मैं गुनहगार हूं, मैं अपराधी हूं। जुर्म अगर हुस्ने-नज़र है तो गुनहगार हूं मैं। दावरा! हे प्रभु! हे न्यायकर्ता! हे ईश्वर! दावरा इसके सिवा मेरी खता कुछ भी नहीं। मेरा और कोई कसूर नहीं है। सौंदर्य था और मेरे पास आंख है सौंदर्य को परखने की, तो मैं क्या करता?
जुर्म अगर हुस्ने-नज़र है तो गुनहगार हूं मैं
दावरा इसके सिवा मेरी खता कुछ भी नहीं
थी नज़र में मेरी शादाबी-ए-जन्नत लेकिन
प्रेमी कहता है कि मुझे पता है कि तेरा स्वर्ग बड़ा प्यारा है और मुझे यह भी पता है कि स्वर्ग में बड़ी खुशियां हैं, और बड़ा सौंदर्य है। मगर फिर भी क्या कहूं?
थी नज़र में मेरी शादाबी-ए-जन्नत लेकिन
स्वर्ग की प्रफुल्लता का मुझे पता है और मेरे खयाल में थी बात। ऐसा भी नहीं था कि भूल गया था। तुझे भूल गया था, ऐसी भी बात न थी।
थी नज़र में मेरी शादाबी-ए-जन्नत लेकिन
कितनी शादाब थी वो राहगुजर क्या कहिए!
लेकिन उसकी गली भी बड़ी प्यारी थी। मैं तुझसे क्या कहूं? तेरा स्वर्ग प्यारा है वह मुझे मालूम है। और भूल भी नहीं गया था। लेकिन फिर भी उसकी गली बड़ी प्यारी थी।
दावरा तेरी मशीअत के तकाजों की कसम
वाकई दिल पै बड़ा जब्र किया था मैंने।
और मैं तुझसे कहना चाहता हूं कि मुझे क्षमा कर। लेकिन मैं सच्ची बात भी तुझसे कह दूं कि ऐसा नहीं है कि मैंने अपने पर बहुत नियंत्रण न रखा था। मैंने बहुत संयम रखने की कोशिश की थी।
दावरा तेरी मशीअत के तकाजों की कसम
मैं तेरी कसम खा कर कहता हूं; हे प्रभु! वाकई दिल पै बड़ा जब्र किया था मैंने। मैंने बहुत तरह से अपने दिल को रोक लेना चाहा था, नियंत्रण रखना चाहा था। और सब नियंत्रण टूट गया। वह सौंदर्य कुछ ऐसा था।
जुर्म अगर हुस्ने-नज़र है तो गुनहगार हूं मैं
दावरा इसके सिवा मेरी खता कुछ भी नहीं
मुझको मालूम था आवारा-निगाही का मआल
और मुझे यह भी पता था कि आंखों को ऐसे भटकाऊंगा, आवारा, तो इसका परिणाम क्या होगा? ऐसा भी नहीं है कि मुझे इसके परिणाम का कुछ पता नहीं था। इसका परिणाम बुरा होगा। मैं भटकूंगा। मैं राह से उतर जाऊंगा। यह संसार का चक्र शुरू होगा। यह मुझे पता था।
मुझको मालूम था आवारा-निगाही का मआल
लेकिन उस शोख का अफसूने नजर क्या कहिए!
पर उसकी आंख! उस सौंदर्य का कहना क्या!
यह भगवान से कह रहा है प्रेमी।
दावरा! मेरी नज़र में थी तेरी शाने जलाल
और मुझे पता हैतेरा तेज पता है! तेरी भव्यता पता है। कुछ ऐसा नहीं कि मैं तुझे नहीं जानता। तेरी भव्यता का मुझे स्मरण है।
दावरा! मेरी नज़र में थी तेरी शाने जलाल
लेकिन ऐ काश दिखा दूं तुझे उसका भी जमाल!
लेकिन काश, अगर मैं उसका सौंदर्य तुझे दिखा सकता तो तू समझता मेरी मुसीबत। मैं पागल हो गया।
दावरा! कितने दिल आवेज थे उसके खतोहाल
और कितने लोग दीवाने थे! कोई मैं अकेला दीवाना था! उसके नाक-नक्श को देखकर कितने लोग दीवाने थे!
दावरा! कितने दिल आवेज थे उसके खतोहाल
और फिर उस पै मेरा हुस्ने नजर क्या कहिए!
और फिर तूने जो मुझे आंख दी है सौंदर्य की परख की, मैं क्या करता, पागल हो गया।
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आज अजाने फिर मेरे इस हृदय-गगन के आंगन में
यह सतरंगी याद तुम्हारी झूला डाल गई।
उसकी याद आते ही एक नया झूला पड़ जाता है तुम्हारे प्राणों के आंगन में।
आज अजाने फिर मेरे इस हृदय-गगन के आंगन में
यह सतरंगी याद तुम्हारी झूला डाल गई
मंद-मंद मुसकाया मेरे भावों का यह ताजमहल
नयनों के सूने पनघट पर फिर हो आई चहल-पहल
आशाओं ने मेंहदी घोली, मांग सजाई चाहों ने
प्राणों के निर्झर में किसने आज मचा दी फिर हलचल
भीगा आंगन, भीगा आंचल, भीग गया तन-मन मेरा
नयनों के तट, बौराई घट, कंचन ढाल गई।
आज अजाने फिर मेरे इस हृदय-गगन के आंगन में
यह सतरंगी याद तुम्हारी झूला डाल गई।
उसकी याद आते ही तुम किसी दूसरे लोक में रूपांतरित हो जाते हो। बहती है एक रसधार।
भीगा आंगन, भीगा आंचल, भीग गया तन-मन मेरा
नयनों के तट, बौराई घट, कंचन ढाल गई।
आज अजाने फिर मेरे इस हृदय-गगन के आंगन में
यह सतरंगी याद तुम्हारी झूला डाल गई।
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