तुमने गति का संघर्ष दिया मेरे मन
को,
सपनों को छवि के छवि के इंद्रजाल का सम्मोहन,
तुमने आंसू की सृष्टि रची है आखों में
अधरों को दी है शुभ्र मधुरिमा की पुलकन!
उल्लास और उच्छवास तुम्हारे ही अवयव
तुमने मरीचिका और तृषा का सृजन किया
अभिशाप बना कर तुमने मेरी सत्ता को
मुझको पग-पग मिटने का वरदान दिया।
मैं हंसा तुम्हारे हंसते -से संकेतों पर
मैं फूट पड़ा लख बैक भृकुटि का संचालन
अपनी लीलाओं से हे विस्मित और चकित!
अर्पित मेरी भावना-इसे स्वीकार करो!
अर्पित है मेरा कर्म-इसे स्वीकार करो।
क्या पाप और क्या पुण्य? इसे तो तुम जानो
करना पड़ता है, केवल इतना शांत यहां।
आकाश तुम्हारा और तुम्हारी ही पृथ्वी
तुममें ही तो इन सासों का आघात यहां।
तुममें निर्बलता और शक्ति इन हाथों की
मैं चला कि चरणों का गुण केवल चलना है
ये दृश्य रचे, दी वही दृष्टि तुमने मुझको
मैं क्या जानूं क्या सत्य और क्या छलना है।
रच- रच कर करना नष्ट तुम्हारा ही गुण है
तुममें ही तो है कुण्ठा इन सीमाओं की
हे निज असफलता और सफलता से प्रेरित!
अर्पित है मेरा कर्म-इसे स्वीकार करो!
अर्पित मेरा अस्तित्व-उसे स्वीकार करो!
रंगों की सुषमा रख मधुऋतु जब जाती है
सौरभ बिखरा कर फूल धूल बन जाता है
धरती की प्यास बुझा जाता गल कर बादल
चट्टानों से टकरा कर निर्झर गाता है!
तुमने ही तो पागलपन का संगीत दिया
करुणा वन गलना तुमने मुझको सिखलाया
तुमने ही मुझको यहां धूल से ममता दी
रंगों में जलना मैंने तुमसे ही पाया!
उस ज्ञान और भ्रम में ही तो तुम चेतन हो।
जिनसे मैं बरबस उठता-गिरता रहता हूं
निज खण्ड-खण्ड में हे असीम, तुम हे अखण्ड
अर्पित मेरा अस्तित्व-इसे स्वीकार करो! झुकों!
---------------------------------------------
कुछ बैठ गये थोड़ा चलकर,
प्रियतम, इस पथ में पांव न दो,
चलते -चलते थक जाओगे।
मैं आज प्रणय-पथ में आयी,
मन में सुख के सपने लायी,
पर इसका कुछ भी ठीक नहीं-
कल कौन तुम्हारे मन भायी?
यह ज्ञात नहीं, इस जीवन में
तुम किस -किसके कहलाओगे?
मानव का मन ही है चंचल,
अपने से भी करता है छल,
दो छींटों से बुझ जाता है,
विक्षिप्त धधकता विरहानल
तुम भी तृणवत् मन के गति
के हलकोरों में बह जाओगे।
मैं तुम से प्रियतम कहती हूं
तुम ज्यादा हो, कम कहती हूं मैं,
किन्तु प्रणय के बन्न्धन को,
सच पूछो तो भ्रम कहती हूं
तुम सुख के सुन्दर धोखे में
उर को कब तक उरझाओगे?
तुम प्यार नहीं कर पाओगे।
तुम नश्वर हो तो भावों में
अमरत्व कहां से लाओगे?
तुम प्यार नहीं कर पाओगे।
-------------------------------
ये बियाबान मेरे वास्ते बने होंगे
इनकी रौनक न बढाऊं तो किधर जाऊंगा
सर्द रातों में चिलकती हुई धूपों के तले
मैं न गाऊंगा तो मर जाऊंगा।
बरहा मुझको सफर करना है
राह मैं आग बिछा दो तो भी तर जाऊंगा
तुमने जिस राह पर अपनी हो बनायी मंजिल
ताउम्र भूल से उस राह नहीं जाऊंगा।
चंद सांसों की सलामी में जिंदगी खो दूं
ऐसा सौदा तो सासों का न कर पाऊंगा
कोई अपना तो नहीं रात के सायों के सिवा
काले सूरज को उजाले तो न दे पाऊंगा।
तुमने छीनी हैं जो मुझसे वो सुनहरी किरणें
उनकी स्याही में बहुत गहरे उतर जाऊंगा
फिर न मैं लौट के उस गांव कभी आऊंगा
अब ना मातम तेरे जाने का मैं मनाऊंगा।
कसम जो कि हो गयी बात, एक खेल से
छुटकारा हुआ। समय रहते छुटकारा हुआ
चंद सांसों की सलामी में जिंदगी खो दूं
ऐसा सौदा तो में सांसों का न कर पाऊंगा।
----------------------------------------------
मेरे ये चरण जो कि पग-पग पर कम्पमान
मेरा यह मस्तक है जिसका अभिशाप ज्ञान
मेरे ये हाथ जो कि फैले हैं अंजलि बन
मेरा ये उरउठना-गिरना’ जिसका विधान!
इनमें ही मेरे अस्तित्व का पराभव है
अपनी सीमा से उठ सकना कब सम्भव है?
मेरे आगे जो अनजाना-सा है प्रसार–
इसमें किसकी सत्ता, है किसका अहंकार?
टेढ़े – मेढ़े अगणित पथ अगणित लोगों के
किन्तु निगल लेता है प्रति पथ को अंधकार!
ज्ञात है मुझे-तुम कह दोगे, ‘यह सपना है!’
पर मैं पंथी हूं पथ मेरा भी अपना है!
खिलना-कलियों का गुण, मुरझाना-फूलों का
टूट -टूट कर फिर -फिर चुभ-चुभ जाना शूलों का
गुण उसका ‘जो कुछ’ है, निर्गुण अस्तित्वहीन
मेरे जीवन का गुण-संचय है भूलों का!
मेरा विश्वास शिथिल, मेरा स्वर धीमा है
अपराजित अंधकार, ज्ञान एक सीमा है!
मेरे सपनों में हंस -हंस पड़ते नव -प्रभात
मेरे संघर्षों में धुंधली-सी निहित रात
मेरे चरणों पर लहराते हैं सप्त सिंधु
मेरे मस्तक पर मंडराते आकाश सात!
क्षिति की प्राचीरों से मुझको टकराना है
मेरे आगे सुख-दुख का ताना-बाना है?
शशि में शीतलता है,रवि में है असह ताप
अलि में गुन-गुन गुंजन, कोयल में है प्रलाप!
मेरे होठों पर हिम, उर में अंगारे हैं
अपनी सासों में मैं युग-युग की लिये माप!
सासों का स्रोत कहां? युग भी अनजाना है
मैं कहता- ‘कब मैंने निज को पहचाना है?
------------------------------------------
तुम बहते जाना, बहते जाना, बहते भाई!
तुम शीश उठा कर सरदी-गरमी सहते जाना भाई!
सब यहां कह रहे हैं रो- रो कर अपने दुख की बातें!
तुम हंसकर सब के सुख की बातें कहते जाना भाई!
भ्रम रहे यहां पर हैं बेसुध-से सूरज, चांद, सितारे
गल रही बरफ, चल रही हवा, जब रहे यहां अंगारे
है आना-जाना सत्य, और सब झूठ यहां पर भाई
कब रुकने पाये झुकने वाले जीवन पर बेचारे?
तुम किस पर खुश हो गये और तुम बोलो किस पर रूठे?
जो कल वाले थे स्वप्न सुनहले आज पड़ चुके झूठे!
है यह कांटो की राह विवश-सा सबको चलते रहना
जो स्वयम् प्रगति बन जाए उसी के स्वप्न अपूर्व अनूठे!
तुम जो देते हो मानवता को आठों याम चुनौती
तुम महल खजानों को जो अपनी समझे हुए बपौती!
तुम कल बन कर रजकण पैरों से ठुकराये जाओगे।
है कौन यहां पर ऐसा जो खा आया हो अमरौती?
यह रंग-बिरंगी उषा लिये है दुख की काली रातें
हैं ग्रीष्म-काल की दाहक लपटों में रस की बरसाते!
यह बनना-मिटना अमिट काल के चल-चरणों का कम है, छाया के चित्रों सदृश यहां हैं ये सुख-दुख की बातें।
रुकना है गति का नियम नहीं, तुम चलते जाना भाई
बुझना प्राणों का नियम नहीं, तुम जलते जाना भाई!
हिम-खण्ड सदृश तुम निर्मल, शीतल, उज्ज्वल यश भागी
जमना आंसू का नियम नहीं, तुम गलते जाना भाई!
तुम बहते जाना, बहते जाना बहते जाना भाई!
तुम शीश उठा कर सरदी-गरमी सहते जाना भाई!
सब यहां कह रहे हैं रो- रो कर अपने दुख की बातें!
तुम हंसकर सब के सुख की बातें कहते जाना भाई!
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सपनों को छवि के छवि के इंद्रजाल का सम्मोहन,
तुमने आंसू की सृष्टि रची है आखों में
अधरों को दी है शुभ्र मधुरिमा की पुलकन!
उल्लास और उच्छवास तुम्हारे ही अवयव
तुमने मरीचिका और तृषा का सृजन किया
अभिशाप बना कर तुमने मेरी सत्ता को
मुझको पग-पग मिटने का वरदान दिया।
मैं हंसा तुम्हारे हंसते -से संकेतों पर
मैं फूट पड़ा लख बैक भृकुटि का संचालन
अपनी लीलाओं से हे विस्मित और चकित!
अर्पित मेरी भावना-इसे स्वीकार करो!
अर्पित है मेरा कर्म-इसे स्वीकार करो।
क्या पाप और क्या पुण्य? इसे तो तुम जानो
करना पड़ता है, केवल इतना शांत यहां।
आकाश तुम्हारा और तुम्हारी ही पृथ्वी
तुममें ही तो इन सासों का आघात यहां।
तुममें निर्बलता और शक्ति इन हाथों की
मैं चला कि चरणों का गुण केवल चलना है
ये दृश्य रचे, दी वही दृष्टि तुमने मुझको
मैं क्या जानूं क्या सत्य और क्या छलना है।
रच- रच कर करना नष्ट तुम्हारा ही गुण है
तुममें ही तो है कुण्ठा इन सीमाओं की
हे निज असफलता और सफलता से प्रेरित!
अर्पित है मेरा कर्म-इसे स्वीकार करो!
अर्पित मेरा अस्तित्व-उसे स्वीकार करो!
रंगों की सुषमा रख मधुऋतु जब जाती है
सौरभ बिखरा कर फूल धूल बन जाता है
धरती की प्यास बुझा जाता गल कर बादल
चट्टानों से टकरा कर निर्झर गाता है!
तुमने ही तो पागलपन का संगीत दिया
करुणा वन गलना तुमने मुझको सिखलाया
तुमने ही मुझको यहां धूल से ममता दी
रंगों में जलना मैंने तुमसे ही पाया!
उस ज्ञान और भ्रम में ही तो तुम चेतन हो।
जिनसे मैं बरबस उठता-गिरता रहता हूं
निज खण्ड-खण्ड में हे असीम, तुम हे अखण्ड
अर्पित मेरा अस्तित्व-इसे स्वीकार करो! झुकों!
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कुछ बैठ गये थोड़ा चलकर,
प्रियतम, इस पथ में पांव न दो,
चलते -चलते थक जाओगे।
मैं आज प्रणय-पथ में आयी,
मन में सुख के सपने लायी,
पर इसका कुछ भी ठीक नहीं-
कल कौन तुम्हारे मन भायी?
यह ज्ञात नहीं, इस जीवन में
तुम किस -किसके कहलाओगे?
मानव का मन ही है चंचल,
अपने से भी करता है छल,
दो छींटों से बुझ जाता है,
विक्षिप्त धधकता विरहानल
तुम भी तृणवत् मन के गति
के हलकोरों में बह जाओगे।
मैं तुम से प्रियतम कहती हूं
तुम ज्यादा हो, कम कहती हूं मैं,
किन्तु प्रणय के बन्न्धन को,
सच पूछो तो भ्रम कहती हूं
तुम सुख के सुन्दर धोखे में
उर को कब तक उरझाओगे?
तुम प्यार नहीं कर पाओगे।
तुम नश्वर हो तो भावों में
अमरत्व कहां से लाओगे?
तुम प्यार नहीं कर पाओगे।
-------------------------------
ये बियाबान मेरे वास्ते बने होंगे
इनकी रौनक न बढाऊं तो किधर जाऊंगा
सर्द रातों में चिलकती हुई धूपों के तले
मैं न गाऊंगा तो मर जाऊंगा।
बरहा मुझको सफर करना है
राह मैं आग बिछा दो तो भी तर जाऊंगा
तुमने जिस राह पर अपनी हो बनायी मंजिल
ताउम्र भूल से उस राह नहीं जाऊंगा।
चंद सांसों की सलामी में जिंदगी खो दूं
ऐसा सौदा तो सासों का न कर पाऊंगा
कोई अपना तो नहीं रात के सायों के सिवा
काले सूरज को उजाले तो न दे पाऊंगा।
तुमने छीनी हैं जो मुझसे वो सुनहरी किरणें
उनकी स्याही में बहुत गहरे उतर जाऊंगा
फिर न मैं लौट के उस गांव कभी आऊंगा
अब ना मातम तेरे जाने का मैं मनाऊंगा।
कसम जो कि हो गयी बात, एक खेल से
छुटकारा हुआ। समय रहते छुटकारा हुआ
चंद सांसों की सलामी में जिंदगी खो दूं
ऐसा सौदा तो में सांसों का न कर पाऊंगा।
----------------------------------------------
मेरे ये चरण जो कि पग-पग पर कम्पमान
मेरा यह मस्तक है जिसका अभिशाप ज्ञान
मेरे ये हाथ जो कि फैले हैं अंजलि बन
मेरा ये उरउठना-गिरना’ जिसका विधान!
इनमें ही मेरे अस्तित्व का पराभव है
अपनी सीमा से उठ सकना कब सम्भव है?
मेरे आगे जो अनजाना-सा है प्रसार–
इसमें किसकी सत्ता, है किसका अहंकार?
टेढ़े – मेढ़े अगणित पथ अगणित लोगों के
किन्तु निगल लेता है प्रति पथ को अंधकार!
ज्ञात है मुझे-तुम कह दोगे, ‘यह सपना है!’
पर मैं पंथी हूं पथ मेरा भी अपना है!
खिलना-कलियों का गुण, मुरझाना-फूलों का
टूट -टूट कर फिर -फिर चुभ-चुभ जाना शूलों का
गुण उसका ‘जो कुछ’ है, निर्गुण अस्तित्वहीन
मेरे जीवन का गुण-संचय है भूलों का!
मेरा विश्वास शिथिल, मेरा स्वर धीमा है
अपराजित अंधकार, ज्ञान एक सीमा है!
मेरे सपनों में हंस -हंस पड़ते नव -प्रभात
मेरे संघर्षों में धुंधली-सी निहित रात
मेरे चरणों पर लहराते हैं सप्त सिंधु
मेरे मस्तक पर मंडराते आकाश सात!
क्षिति की प्राचीरों से मुझको टकराना है
मेरे आगे सुख-दुख का ताना-बाना है?
शशि में शीतलता है,रवि में है असह ताप
अलि में गुन-गुन गुंजन, कोयल में है प्रलाप!
मेरे होठों पर हिम, उर में अंगारे हैं
अपनी सासों में मैं युग-युग की लिये माप!
सासों का स्रोत कहां? युग भी अनजाना है
मैं कहता- ‘कब मैंने निज को पहचाना है?
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तुम बहते जाना, बहते जाना, बहते भाई!
तुम शीश उठा कर सरदी-गरमी सहते जाना भाई!
सब यहां कह रहे हैं रो- रो कर अपने दुख की बातें!
तुम हंसकर सब के सुख की बातें कहते जाना भाई!
भ्रम रहे यहां पर हैं बेसुध-से सूरज, चांद, सितारे
गल रही बरफ, चल रही हवा, जब रहे यहां अंगारे
है आना-जाना सत्य, और सब झूठ यहां पर भाई
कब रुकने पाये झुकने वाले जीवन पर बेचारे?
तुम किस पर खुश हो गये और तुम बोलो किस पर रूठे?
जो कल वाले थे स्वप्न सुनहले आज पड़ चुके झूठे!
है यह कांटो की राह विवश-सा सबको चलते रहना
जो स्वयम् प्रगति बन जाए उसी के स्वप्न अपूर्व अनूठे!
तुम जो देते हो मानवता को आठों याम चुनौती
तुम महल खजानों को जो अपनी समझे हुए बपौती!
तुम कल बन कर रजकण पैरों से ठुकराये जाओगे।
है कौन यहां पर ऐसा जो खा आया हो अमरौती?
यह रंग-बिरंगी उषा लिये है दुख की काली रातें
हैं ग्रीष्म-काल की दाहक लपटों में रस की बरसाते!
यह बनना-मिटना अमिट काल के चल-चरणों का कम है, छाया के चित्रों सदृश यहां हैं ये सुख-दुख की बातें।
रुकना है गति का नियम नहीं, तुम चलते जाना भाई
बुझना प्राणों का नियम नहीं, तुम जलते जाना भाई!
हिम-खण्ड सदृश तुम निर्मल, शीतल, उज्ज्वल यश भागी
जमना आंसू का नियम नहीं, तुम गलते जाना भाई!
तुम बहते जाना, बहते जाना बहते जाना भाई!
तुम शीश उठा कर सरदी-गरमी सहते जाना भाई!
सब यहां कह रहे हैं रो- रो कर अपने दुख की बातें!
तुम हंसकर सब के सुख की बातें कहते जाना भाई!
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धन्यवाद। 🌹🏵️🙏😌
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