Sunday, 21 June 2015
Wednesday, 10 June 2015
मन ही पूजा मन ही धूप–(संत रैदास)–(प्रवचन–1)
वफा के पर्दे में क्या—क्या जफाएं देखी हैं
निगाहे—लुक पर अब मुझको एतमाद नहीं
मुझे यकीं है मगर दिल को क्या करूं
कि उसे
किसी के वादा—ए—फर्दा पे एतमाद नहीं
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दिल को बना हरम—नशीं, तौफे—हरम नहीं, न हो
मानीए—बदगी समझ, सूरते—बदगी न देख
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कोई रिंदी की इस जफें—नजर की वुसअतें देखे
हर इक टूटे हुए सागर को जामे—जम समझते हैं
निसारे—शमअ होकर बज्य में कहते हैं परवाने—
कोई समझे न समझे, हम मआले—गम समझते हैं
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नजअ में बहुत धीमी जुंबिशें नफस की
हैं
है करीब मंजिल के आज कारवां अपना
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शबो—रोज मोहब्बत सीने में पोशीदा अगर्चो
है,
फिर भी
आहों में लरजते रहते हैं, अश्कों से नुमायां होते हैं
रुकते हैं कहीं दीवारों से, थमते हैं कहीं जंजीरों से
इजहारे—जुनू पर आमादा जब कैदिए—जिदा होते हैं
जी भर के तड़प लेने दे उन्हें, रह—रह के जरा जलने दे उन्हें
ऐ शमअ की लौ! ये परवाने इक रात के
मेहमा होते हैं
रुकते हैं कहीं दीवारों से, थमते हैं कहीं जंजीरों से
इजहारे—जुनू पर आमादा जब कैदिए—जिदा होते हैं
तुम्हें कोई रोक नहीं सकता कारागृह
में। अगर तुम आमादा ही हो गए तो न कोई दीवाल रोक सकती है, न कोई जंजीरें रोक सकती हैं। तुम
परमात्मा को पा ही लोगे। अगर कोई रोकता है तो तुम्हारा मन, तुम्हारे मन की दुविधा। और कोई
तुम्हें नहीं रोकने वाला है।
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खुशी खुशी में न गम में कोई मलाल
मुझे
बना दिया है मोहब्बत ने बे—मिसाल मुझे
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कहीं मश्गले—असबाबे—सफर पीछे न रह जाए
शरीके—कारवा हो, इतिजामे—कारवा कब तक
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देखिए अब कौन—सा द्या जगाता है हमें
मुंह छुपा के सो रहे हैं दामने—साहिल से हम
सामने मंजिल है और आहिस्ता उठते हैं
कदम
पास आकर हो रहे हैं दूर फिर मंजिल
से हम
कामयाबी में भी है नाकामयाबे—जिदगी
ऐन मंजिल पर नहीं हैं आश्ना मंजिल
से हम
और मंजिल दूर नहीं है।
ऐन मंजिल पर नहीं हैं आश्ना मंजिल
से हम
कठिनाई हमारी यह है कि हम मंजिल से
परिचित नहीं हैं; अन्यथा
हम मंजिल पर ही हैं।
सामने मंजिल है और आहिस्ता उठते हैं
कदम
पास आकर हो रहे हैं दूर फिर मंजिल
से हम
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देख ऐ मुन्इम! यही था मुझमें—तुझमें इप्तियाज
तेरा कब्जा था जहां पर, मेरा कब्जा दिल पे था
ऐ धनिक, ऐ धन वाले देख, मुझमें और तुझमें इतना ही अंतर था।
थोड़ा ही अंतर, पर
बहुत बड़ा फिर भी, बड़े
से बड़ा और छोटे से छोटा।
देख ऐ मुन्इम! यही था मुझमें—तुझमें इस्तियाज
ऐ धनिक, इतना—सा ही भेद था मुझमें और तुझमें
तेरा कब्जा था जहां पर, मेरा कब्जा दिल पे था
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गाते गीत, सीते जूते। गुनगुनाते राम को, सीते जूते।
ऐसे जो आता है प्रभु के द्वार पर
वही स्वीकार होता है, वही
प्रवेश कर पाता है।
प्रार्थना का सार सूत्र है : जो
तेरी मर्जी है वह पूरी हो।
आज इतना ही।
मन ही पूजा मन ही धूप–(प्रवचन–3)(प्रवचन–4)
मन ही पूजा मन ही धूप–(संत रैदास) –(प्रवचन–4)
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एक नागरिक से
हमने प्रश्न किया,
आप नेताजी की तरह
सिर के बाल
कब मुंडा रहे हैं?
वह तुनक कर बोला,
भाई साहब,
आप हमारी हंसी
क्यों उड़ा रहे हैं?
वैसे ही
मंहगाई की जूतियों के
निरंतर प्रहार के बीच
बड़ी मुश्किल से
खोपड़ी पर
दों—चार बाल
उग पाते हैं……
जिन्हें
राजनीतिक गुर्गे
और उनके
पाले हुए मुर्गे
चुग जाते हैं।
उस पर भी
उनकी नजर बचा कर
अगर हम
अपनी खोपड़ी पर
कुछ बाल
बचा लेते हैं
तो वे
चुनाव खर्च का
उलटा उस्तरा चला कर
उन्हें भी
ठिकाने लगा देते हैं।
इसी कारण
इस खल्वाट खोपड़ी पर
एक भी बाल
नजर नहीं आता है!
हमारा तो
बिना मुंडन करवाए ही
मुंडन हो जाता है!
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रफ्ता—रफ्ता यह जमाने का सितम होता है
एक दिन रोज मेरी उम्र से कम होता है
बाग रोता है असीराने—कफस को शायद
दामने—सज्जा—ओ—गुल सुबह को नम होता है
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हजार तरह तखथ्युल ने करवटें बदलीं
कफस—कफस ही रहा, फिर भी आशिया न हुआ
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आग थे इकिदाए—इश्क में हम
हो गए खाक, इन्तिहा है यह
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रंगे—निशात देख मगर मुत्मइन न हो
शायद कि यह भी हो कोई सूरत मलाल की
गुलशन बहार पर है, हंसो ऐं गुलो हंसों
जब तक खबर न हो तुम्हे अपने मआल की
अहसास अब नही है मगर इतना याद है
शक्लें जुदा—जुदा थीं उरूजो—जवाल की
रंगे—निशात देख……..
रंगे—निशात देख मगर मुत्मइन न हो
शायद कि यह भी हो कोई सूरत मलाल की
यह भी शायद दुख का एक आवरण हो, एक ढंग हो, एक सूरत हो।
गुलशन बहार पर है, हंसों ऐं गुलो हंसों
वसंत आ गया है, तो फूलो, हंसो!
जब तक खबर न हो तुम्हें अपने मआल की
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हुआ अहसास पैदा मेरे दिल में तकें—दुनिया का
मगर कब, जब कि दुनिया को जरूरत ही न थी मेरी
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अपनी हालत का खुद अहसास नहीं है
मुझको
मैंने औरों से सुना है कि परेशान
हूं मैं
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मुझे अहसास कम था वरना दौरे—जिंदगानी में
मेरी हर सांस के हमराह मुझमें
इंकलाब आया
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अपने ही हाथ से दे—दे जो तुझे देना है
मेरी तशहीर न फर्मा मुझे साइल न बना
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बुझा दे ऐ हवाए—तुद मदफन के चिरागों को
सियह—बस्ती में ये एक बदनुमा धब्बा लगाते
हैं
मुरत्तब कर गया इक इश्क का कानून
दुनिया में
वो दीवाने हैं जो मजनू को दीवाना
बताते हैं
उसी महफिल से मैं रोता हुआ आया हूं
ऐ ‘आसी’
इशारों में जहां लाखों मुकद्दर बदले
जाते हैं
बुझा दे ऐ हवाए—तुद..
ऐ तेज हवा, बुझा दे।
मदफन के चिरागों को
ये समाधि पर जो चिराग जलाए हैं, ऐं तेज हवा, इनको बुझा दे।
सियह—बस्ती में ये एक बदनुमा धब्बा लगाते
हैं
इस अंधेरे की दुनिया में इन चिरणों
से धब्बा लगता है। ये चिराग अच्छे नहीं लगते इस अंधेरी दुनिया में।
और लोग भी अजीब हैं, समाधि पर चिराग जलाते हैं! जब आदमी
मर गया तब उसकी समाधि पर चिराग जलाते हैं। अरे चिराग जलाओ अपने भीतर— जब जिंदा हो तब! जिंदगी का चिराग
बनाओ।
बुझा दे ऐं हवाए—तुंद मदफन के चिरागों को
सियह—बस्ती में ये एक बदनुमा धब्बा लगाते
हैं
मुरत्तब कर गया इक इश्क का कानून
दुनिया में
वो दीवाने हैं जो मजनू को दीवाना
बताते हैं
और जिन्होंने मजनू को दीवाना बताया
है,
वे दीवाने हैं; उन्हें पता ही नहीं जीवन के सत्य
का। मजनू नहीं है दीवाना—उसे
प्रेम का राज पता चल गया है।
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उसी महफिल से मैं रोता हुआ आया हूं
ऐ ‘आसी’
इशारों में जहां लाखों मुकद्दर बदले
जाते हैं
………………………………………………………………………..
हजारों तरह अपना दर्द हम उनको
सुनाते हैं
मगर तस्वीर को हर हाल में तस्वीर
पाते हैं
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उम्मीदे—अम्न क्या हो याराने—गुलिस्ता से
दीवाने खेलते हैं अपने ही आशिया से
बिजली कहा किसी ने, कोई शरार समझा
इक लौ निकल गई थी, दागे—गमे—निहा से
नाकूस बनके मैंने चौंका दिया हरम को
पत्थर सनमकदे के जागे मेरी अजां से
मदारे—हर—अमले—नेको—बद है नीयत पर
अगर गुनाह की नीयत न हो गुनाह नहीं
नकाब उलट दिया मूसा ने तूर पर उनका
अगर गुनाह सलीके से हो, गुनाह नहीं
सच्चा परमात्मा मिल सकता है, उसका घूंघट भी उठाया जा सकता है— उठाने की तरकीब आनी चाहिए।
नाकूस बनके मैंने चौंका दिया हरम को
शंख का नाद कर दिया मैंने काबा में।
काबा में शंखनाद नही किया जाता।
नाकूस बनके मैंने चौंका दिया हरम को
काबे में जाकर मैंने शंख बजा दिया
और काबे के पत्थर को चौंका दिया।
पत्थर सनमकदे के जागे मेरी अजां से
और मैंने मंदिरों में जहां पत्थरों
की मूर्तियां थीं, अजान
पढ़ी, नमाज
पढ़ी और मुर्दा मूर्तियों में प्राण डाल दिए।
असल में तुम्हारे भीतर प्राण हों तो
तुम जहां हो वहीं तीर्थ है। तुम काबे में बैठ जाओ तो काबा तीर्थ है। और तुम कहीं
और बैठ जाओ तो वहीं काबा आ जाए। काबा वहां है जहां प्रेम से भरा हुआ हृदय है, परमात्मा के प्रति समर्पित है।
अदब— आमोज है मैखाने का जर्रा—जरी
सैकड़ों तरह से आ जाता है सिब्दा
करना
इश्क पाबंदे—वफा है, न कि पाबंदे—रसूम
सर झुकाने को नहीं कहते हैं सिब्दा
करना
सिर झुकाने मात्र को सिब्दा करना
नहीं कहते, प्रार्थना
करना नहीं कहते।
इश्क पाबंदे—वफा है……..
इश्क में एक श्रद्धा तो है।
…….न कि पाबंदे—रसूम
लेकिन किसी परंपरा और लीक में नहीं
बंधा है प्रेम। प्रेम तो लीक से मुक्त है, परंपरा से मुक्त है। प्रेम तो
स्वतंत्रता है, परतंत्रता
नहीं।
अदब—आमोज है मैखाने का जरी—जर्रा
पीना आता हो, पियक्कड़ होना आता हो— तो फिर मैखाने का जर्रा—जर्रा भी अदब सिखाने वाला है, विनय सिखाने वाला है।
अदब—आमोज है मैखाने का जर्रा—जर्रा
सैकड़ों तरह से आ जाता है सिब्दा
करना
जरा प्रेम की मदिरा पीओ! किसी
सदगुरु के मदिरालय में बैठो! हृदय को खोलो! उसकी शराब में डूबो! और सिब्दा करना आ
जाएगा।
सैकड़ों तरह से आ जाता है सिब्दा
करना
इसकी कोई बंधी—बधाई व्यवस्थाएं नहीं है। प्रार्थना
कोई बंधा—बंधाया
सूत्र नहीं है। मुक्ति किन्हीं
बंधे—बंधाए सूत्रों से मिल भी नहीं सकती।
अदब— आमोज है मैखाने का जर्रा—जर्रा
सैकड़ों तरह से आ जाता है सिब्दा
करना
इश्क पाबंदे—वफा है, न कि पाबंदे—रसूम
सर झुकाने को नहीं कहते हैं सिब्दा
करना
आज
इतना ही।
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