Sunday, 4 September 2016

पद घूंघरू बांध--(प्रवचन--20)


यहां से शहर को देखो तो हल्का-दर-हल्का
खिंची है जेल की सूरत हर एक सम्त फसील
हर एक रहगुजर गर्दिशे-असीरां है
न संगे-मीलन मंजिलन मुख्लसी की सबील
जो कोई तेज चले रहे तो पूछता है खयाल
कि टोकने कोई ललकार क्यों नहीं आई?
जो कोई हाथ हिलाए तो वहम को है सवाल
कोई छनककोई झंकार क्यों नहीं आई?
यहां से शहर को देखो तो सारी खल्कत में
न काई साहिबेत्तमकींन कोई वाली-ए-होश
हर एक मर्दे-जवां मुजरिम-रसन-ब-गुलू
हर एक हसीना-ए-रोना कनीज हल्का-ब-गोश
जो साए दूर चिरागों के गिर्द लर्जा हैं
न जाने महफिले गम है कि बज्मे-जाम-ओ-सबू
जो रंग हर दरो-दीवार पर परीशां है
यहां से कुछ नहीं खुलताये फूल हैं कि लहू।
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उनकी तस्वीर निगाहों में चमक उठी है
आंसुओ! आज तो दम भर के लिए थम जाओ
जाने ये कौन बरसकौन सदी है कि यहां
मेरी नाकाम सदाओं के भटकते आसेब
अपनी ही खोज में आवारा-ओ-दरमांदा है
मुझको जाना था किधर और मैं आया हूं कहां?
अपने जख्मों को लिए कितने नगर घूमा हूं
ले के सामाने-सफर दुखते हुए शानों पर
हाथ पकड़े हुए वहशत-जदा अरमानों का
अजनबी वादियोंदरियाओं में आ पहुंचा हूं
हसरतो-गम की तपिश-रेज गुजर राहों पर
मेरे रिसते हुए छालों के निशां मिलते हैं
जीस्त दम भर को जहां बैठ के सुस्ताती थी
अब वो पीपल के घने साए कहां मिलते हैं
वक्त दम साधे हुए कांप रहा है कि अभी
जिंदगी अपनी कमींगह से निकल आएगी।
और ठोकर उसे मारेगी कि--"चलआगे बढ़!'
इसके पहले कि मिले वक्त को हुक्मे-रफतार
मेरा खोया हुआ चेहरा मुझे वापस दे दो
अपने लब रख के मैं उन ओंठों पे सो जाऊंगा
जिनको चूमे हुए कितने ही बरस बीत गए
रूह में सुर्खिए-लब घुल के उतर जाएगी
सुबह अनफास की निकहत में बस जाएगी
पांव उठेंगे उसी शहर की जानिबकि जहां
कल्ब ने मेरेधड़क उठने का फन सीखा था
दम बखुद वक्त मुझे देख के पूछेगा--
"क्या तेरे शौक की वारफ्तःमिजाजी है वही?'
अपने उलझे हुए बालों की लटें बिखराए
कौन ये गोद में बच्चे को लिए बैठी है
अपने घर-बारदरोबाम से उकताई हुई
--किसलिए आए हैं? क्यों घर में घुसे आते हैं?
जाइए-जाइएआफिस से वो आते होंगे
अजनबी शख्स को देखेंगे तो घबड़ाएंगे
जाने क्या सोचेंगेकुछ सोच के झुंझलाएंगे
कौन वोकौन ये बच्चाये थका-सा चेहरा?
कौन मैंअपने ही पैकर का झिझकता साया
वक्त एहसासे खिजालत से झुकाए हुए सर
अपनी खामोश निगाहों से ये करता है सवाल
"क्या तेरे शौक की वारफ्तःमिजाजी है वही?'
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जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो

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