सूत्र :
झुक आई बदरिया सावन की, सावन की मनभावन की।
सावन में उमग्यो मेरा मनवा, भनक सुनी हरि आवन की।
उमड़—घुमड़ चहुं दिस से आए, दामण दमक झर लावन की।
नन्हीं—नन्हीं बुंदिया मेहा बरसे, सीतल पवन सुहावन की।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, आनंद मंगल गावन की।
राणाजी, मैं सांवरे रंग राची।
सज सिंगार पद बांध घुंघरू, लोकलाज तजि नाची।
गई कुमति लहि साधु संगति, भक्ति रूप भई सांची।
गाय—गाय हरि के गुण निसदिन, काल—ब्याल ते बांची।
उन बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, भक्ति रसीली जांची।
मीरा को प्रभु सांची दासी बनाओ। झूठे धंधों से मेरा फंदा छुड़ाओ।
लूटे ही लेत विवेक का डेरा। बुधिबल यदपि करूं बहुतेरा।
हाय राम नहिं कछु बस मोरा। मरती बिबस प्रभु धाओ—धाओ।
धर्म उपदेस नित ही सुनती हूं। मन कुचाल से बहु डरती हूं।
सदा साधु सेवा करती हूं। सुमिरण ध्यान में चित्त धरती हूं।
भक्ति मार्ग दासी को दिखाओ। मीरा को प्रभु सांची दासी बनाओ।
___________________________________
अभी तक स्पर्श—संवेदित सुनहली धूप की बालें।
प्रतीक्षा से सतत चित्रित घने हेमंत की छाया
अभी तक सुन रहा आकाश अपने छोर फैला कर
अरुण आलोक के मन में दिवा का गीत गदराया
अभी तक है सहेजे पंछियों की पांत बादल तक
बिछुड़ती, बेसंवारी, फैलती रेखा सगेपन की
अभी तक है बसाए डूबता दिन वक्र किरणों में
अचिह्नित तलतृणों की राह देखी लय विसर्जन की।
____________________________________
कसक बढ़—बढ़ के दर्दे दिल का दरमा होती जाती है
खिजां आखिर मेरी रश्के बहारां होती जाती है
जहां में जब से अपने आप को मैंने मिटाया है
यहां हर शै खुशी का मेरी सामां होती जाती है
तेरी चश्मे करम की बिजलियों की मेहरबानी से
जरा सी खाक इश्के मेहरे ताबां होती जाती है
जहां का जर्रा—जर्रा नूरे जल्वा से चमक उट्ठा
जमीं खुर्शीद से बढ़ कर दरक्शां होती जाती है
कसक बढ़—बढ़ के दर्दे दिल का दरमां होती जाती है
खिजां आखिर मेरी रश्के बहारां होती जाती है
दर्द बढ़ते—बढ़ते ही दवा हो जाता है। पीड़ा बढ़ते ही बढ़ते एक ऐसी घड़ी आ जाती है कि उसी पीड़ा में तुम डूब जाते और मिट जाते। वही इलाज है। तुम्हारा मिट जाना तुम्हारा इलाज है। और फिर—
खिजां आखिर मेरी रश्के बहारां होती जाती है
—फिर तुम्हारा पतझड़ वसंत में रूपांतरित होने लगता है। फिर गए उमस और धूप के दिन। झुक आई बदरिया सावन की!
जहां में जब से अपने आप को मैंने मिटाया है
खयाल रखना, तुम्हारे मिटने में ही सारा राज है। तुम मिटो तो परमात्मा हो जाए। तुम रहो तो परमात्मा मिटा रहेगा। दो में से एक ही हो सकता है। तुम भी और परमात्मा भी, ऐसा नहीं हो सकता। या तुम या परमात्मा।
जहां में जब से अपने आप को मैंने मिटाया है,
यहां हर शै खुशी का मेरी सामां होती जाती है।
तो फिर हर घटना, हर घड़ी आनंद का आधार बनती जाती है। मिटो भर...फिर आनंद ही आनंद है।
तेरी चश्मे करम की बिजलियों की मेहरबानी से
और तेरी अनुकंपा की जो बिजलियां मुझ पर कौंध रही हैं, तेरी कृपा की जो बिजलियां मुझ पर कौंध रही हैं—
तेरी चश्मे करम की बिजलियों की मेहरबानी से
जरा सी खाक इश्के मेहरे ताबां होती जाती है।
यह प्रेम की जो छोटी सी धूल मैं तेरे चरणों में चढ़ाने को ले आया था, इस धूल का कण—कण ऐसी रोशनी से भर गया है कि जैसे सूरज बन गया हो। यह तेरी कृपा की बिजलियों का ही परिणाम है।
जहां का जर्रा—जर्रा नूरे जल्वा से चमक उट्ठा
और जब तक तुम न चमक उठोगे नूरे—जल्वे से, जब तक तुम्हारे भीतर परमात्मा का नूर पूरा प्रकट न होगा, तब तक तुम्हें उसका नूर बाहर भी दिखाई न पड़ेगा। तुम वही देख सकते हो, जो तुम हो। तुम अपने से ज्यादा को नहीं देख सकते हो। तुम अपने से पार को नहीं देख सकते हो।
____________________________________
जो इन आंखों ने देखा क्या बताएं
जो गुजरी दिल पे अपनी क्या सुनाएं
फलक ने ढाए हम पर जुल्म क्या—क्या
जमीं ने हम पे कीं क्या—क्या जफाएं
न पूछ ऐ दोस्त रूदादे गमे दिल
तुझे भी साथ अपने क्यों रूलाएं
तमन्नाओं, उम्मीदों, हसरतों के
फिर अब खाबीदा फितने क्यों जगाएं
इसी में मसलहत है चुप रहें हम
जहां में हश्र आखर क्यों उठाएं
इनायत जिसने दर्दे दिल किया है
उसी को देते जाएंगे दुआएं
चमक उठी हैं तेरे नक्शे पासे
जहाने शौक की तारीक राहें
तेरी चश्मे करम की एक झलक से
मिटी हैं आसमां की सब जफाएं
तेरे एक हर्फे जेरे लब से उठें
खलूसे इश्क की सारी वफाएं
दमे जां बख्श से तेरे हुई हैं
मुअत्तर दोनों आलम की फिजाएं
रूखे रोशन अम्बवाजे तबस्सुम
मेरी बख्शी गई हैं सब खताएं
भुला सकते हैं दुनिया की हर इक शै
मोहब्बत को तेरी कैसे भुलाएं!
जब भक्त भगवान के सान्निध्य में आना शुरू होता है तब उसे पता चलता है कि इतने दुख झेले, इतनी पीड़ाएं झेलीं,रास्ते में इतने कांटे चुभे, राह में इतने नरक भोगे—लेकिन सब अब भूले जा सकते हैं। उसकी अनुकंपा की एक बूंद भी उन सबको भुला देने के लिए काफी है।
जो इन आंखों ने देखा क्या बताएं
जो गुजरी दिल पे अपने क्या सुनाएं
फलक ने ढाए हम पर जुल्म क्या—क्या
जमीं ने हम पे कीं क्या—क्या जफाएं
न पूछ ऐ दोस्त रूदादे गमे दिल
तुझे भी साथ अपने क्यों रूलाएं।
सब मिट जाता है, जैसे एक दुख—स्वप्न देखा था। उसकी बात भी छेड़ने का मन नहीं रह जाता। भक्त बहुत बार सोचता है कि जब भगवान को मिलेगा तो करेगा सब शिकायतें। खोल कर रख देगा अपनी पीड़ाओं का चिट्ठा। कहेगा: ये तुमने क्यों इतने कष्ट दिए? क्यों इतनी तकलीफें दीं? क्यों ऐसा संसार बनाया? क्यों हमारे मन को ऐसा उपद्रवी रूप दिया? क्यों इतनी वासनाएं भरीं? क्यों? पूछूंगा...।
स्वभावतः सभी भक्तों के मन में यह भाव होता है कि जिस दिन भगवान मिलेगा, कुछ सवाल तो पूछ ही लेने हैं। ऐसा क्यों किया तूने? क्यों इतना दुख भरा संसार बनाया? तू तो करुणावान है, फिर तूने इतना दुखभरा संसार क्यों बनाया? तू तो परम रोशनी है, इतना अंधेरा रास्ते पर क्यों घना किया? क्या है हमारा कसूर? क्या था हमारा कसूर? हमें क्यों दिए ऐसे पाप से भरी हुई वृत्तियों के तूफान? हमारे मन में क्यों ऐसी वृत्तियां पैदा कीं? हमें क्यों इस ढंग से रचा?
लेकिन जब परमात्मा से मिलन होता है तब समझ में आता है—
तमन्नाओं, उम्मीदों, हसरतों के
फिर अब खाबीदा फितने क्यों जगाएं
अब उन खोई हुई बातों को क्यों उठाना? अब व्यर्थ की बातों का क्यों राग छेड़ना?
इसी में मसहलत है चुप रहें हम
जहां में हश्र आखर क्यों उठाएं
अब बात गई सो गई...।
इनायत जिसने दर्दे दिल किया है
उस क्षण तो परमात्मा से मिलन के क्षण में सब शिकायत खो जाती हैं। उस क्षण तो धन्यवाद उठता है।
इनायत जिसने दर्दे दिल किया है
उसी को देते जाएंगे दुआएं
तब शिकायत नहीं उठती, दुआ उठती है। प्रार्थना उठती है। धन्यवाद उठता है।
चमक उठी हैं तेरे नक्शे पा से
जहाने शौक की तारीक राहें
और तेरे पैरों के चिह्न से सब अंधेरे मिट गए हैं। रास्ते रोशन हो गए हैं।
तेरी चश्मे करम की एक झलक से
तेरी अनुकंपा की एक बिजली कौंधी।
मिटी हैं आसमां की सब जफाएं
सब दुख—दर्द मिट गए, सब पीड़ाएं मिट गईं, सब नरक समाप्त हो गए। वह जो देखा था, एक दुख—स्वप्न था, jअसलियत न थी।
भुला सकते हैं दुनिया की हर इक शै
मोहब्बत को तेरी कैसे भुलाएं।
वह सब भूल गया। वह सब समाप्त हो गया।
____________________________________
लाख सदमे उठा रहा हूं मैं
जख्म पर जख्म खा रहा हूं मैं
इस तरह से दिलो जिगर ऐ दोस्त
तेरे काबिल बना रहा हूं मैं
गिन रहा हूं मौत की घड़ियां
जीस्त के दिन बिता रहा हूं मैं
आखिर इक दिन आओगे ऐ दोस्त
आज आओ—बुला रहा हूं मैं
____________________________________
ग्रहण करती निज सत्य स्वरूप तुम्हारे स्पर्श मात्र से धूल,
कभी बन जाती घट साकार, कभी रंजित सुवासमय फूल
और यह शिला खंड निर्जीव शाप से पाता सा उद्धार
शिल्पी, हो जाता पाकर स्पर्श एक पल में प्रतिमा साकार
तुम्हारी सांसों का यह खेल जलद में बनते अगणित चित्र
मृत्ति, प्रस्तर मेघों का पुंज लिए मैं देख रहा हूं राह
कि शिल्पी आएगा इस ओर पूर्ण करने को मेरी चाह
खिलेंगे किस दिन मेरे फूल, प्रकट होगी कब मूर्ति पवित्र,
और मेरे नभ में किस रोज जलद बिहरेंगे बन कर चित्र
शिल्पी, जो मुझमें व्याप्त—विलीन किरण वह कब होगी साकार?
____________________________________
जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो
No comments:
Post a Comment