Friday, 9 September 2016

राम दुवारे जो मरे--(प्रवचन--03)

सोई सहर सुबह बसेजहं हरि के दासा।
दरस किए सुख पाइएपूजै मन आसा।।
साकट के घर साधजनसुपनैं नहिं जाहीं
तेइत्तेइ नगर उजाड़ हैंजहं साधू नाहीं।।
मूरत पूजैं बहुत मतिनित नाम पुकारैं
कोटि कसाई तुल्य हैंजो आतम मारैं।।

परदुःख—दुखिया भक्त हैसो रामहिं प्यारा।
एक पलक प्रभु आपतें नहिं राखैं न्यारा।।
दीनबंधु करुनामयीऐसे रघुराजा
कहैं मलूक जन आपने को कौन निवाजा।।

मुवा सकल जग देखियामैं तो जियत न देखा कोयहो।
मुवा मुई को ब्याहता रेमुवा ब्याह करि देइ।।
मुए बराते जात हैंएक मुवा बंधाई लेइहो।।
मुवा मुए से लड़न कोमुवा जोर लै जाइ
मुरदे मुरदे लड़ि मरेमुरदा मन पछिताइहो।।
अंत एक दिन मरौगे रेगलि गलि जैहे चाम।
ऐसी झूठी देह तेंकाहे लेव न सांचा नामहो।।
मरने मरना भांति है रेजो मरि जानै कोइ
रामदुवारे जो मरेवाका बहुरि न मरना होइहो।।
इनकी यह गति जानिकेमैं जहंत्तहं फिरौं उदास।
अजर अमर प्रभु पाइयाकहत मलूकदासहो।।

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पर कदम तरु पर

बांसुरी बजाते तुम जब ढलती दोपहर
स्वर ऊपर खिंचता हवाओं को खनकाता
शाम धुली अलसाई जमुना के आर—पार
पगडंडीगांव—गलीघर—आंगन लहराता
सुर—नर—मुनिजड़—चेतन सब पर करता टोना

नीचे मैं पोखर
कदम तरु के तले एक कच्ची तलैया भर
मैं क्या भला वंशी स्वर को पकड़ पाता?
मुझको मिला सिर्फ तुम्हारी जलछाया का भार
क्षणभंगुर साया जो दिन ढलते खो जाता
रह जाता मैला जल फैला कोना—कोना
वंशी पर तुमने जो भी जादू गाया हो
पर,
कसम धरा लो जो मैंने कुछ भी पाया हो!

बंधती होगी जमुना की धारा वंशी से
यहां तो हमेशा से बंधा हुआ पानी है
कीचड़ हैकाई हैसड़े—गले—पत्ते हैं
गंदे जल—सांपों की रेंगती निशानी है

होगी कोई राधा जो खिंच आती होगी
सम्मोहित गतिखिसका आंचलअधखुल पायल
मुझमें तो केवल कुछ थकी हुई लहरें बस
अपने से टकरातीं अपने से ही घायल

ऊपर मेरे तट पर
बजता रहा वंशी स्वर
करता रहा सुर—नर—मुनिजड़—चेतन पर टोना

नीचे मैं पोखर
रहा ज्यों—का—त्यों कीचड़ भर
व्यास को जो दिखा नहीं
सूर ने जो लिखा नहीं
मेरे हित सारी यह लीला असंगत रही
बिल्कुल निरर्थक रहा मेरा होना
कदम के तले होनान होना,

ऊपर कदम तरु पर
बांसुरी बजाते तुम जब ढलती दोपहर
स्वर ऊपर खिंचता हवाओं को खनकाता
शाम धुली अलसाई जमुना के आर—पार
पगडंडीगांव—गलीघर—आंगन लहराता
सुर—नर—मुनिजड़—चेतन सब पर करता टोना
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अविनश्वर हुआ रूप
शाश्वत हो गयी प्यास
हर कण चेतन—हुलास
हर क्षण मधु महारास
रजनी की कबरी मेंगुंथे स्वर्ण—रश्मि फूल
कुंदन हो गए चरणचंदन हो गयी धूल

चेतन के सिरहाने
पंखा झलता प्रकाश
मधु लय में तैर गएपांखी—से मगन छंद
प्राणों से बहा प्यारफूलों से ज्यों सुगंध
मुट्ठी में बंद हुआ
पूरा मधु महाकाश
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हमने
परिचित नेता से
प्रश्न किया,
"आपने जिस ढंग से
अपने सिर पर
टोपी लगायी है
उसे देखकर
सभी की बुद्धि
भरमायी है
आपको देख कर
लोग कई तरह के
अनुमान लगा रहे हैं
अतः कृपया बताएं
कि आप
पार्टी में आ रहे हैं,
या पार्टी से जा रहे हैं?’’

वे धूर्त की तरह
मुस्करा कर बोले,
"न तो हम
पार्टी में आ रहे हैं
न जा रहे हैं
हम तो सिर्फ यह दिखा रहे हैं
कि हमारे पैरों में अभी दम है
हम चलने—फिरने में
सक्षम हैं
टिकट मिलेगा
तो हम यहां टिक जाएंगे
अन्यथा
जो टिकट देगा
उसी के हाथों,
बिक जाएंगे""।
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निजामेसुबहो—शामे—देहर है जिसके इशारों पर।
मेरी ग़फलत तो देखो मैं उसे ग़ाफिल समझता हूं।
क्या तुम सोचते हो वह बेहोश हैक्या उसे तुम्हारा पता नहीं?
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ये बेड़ा कहां जाकर पार लगेगा
इधर भी अंधेराउधर भी अंधेरा,
नए मांझियों ने नए जोश से कल
नई बल्लियों में नए पाल बांधे,
कमर में उमंगों के फेंटे लपेटे
नई साध से फिर नए डांड़ साधे!
नई बाढ़ में छोड़ दी मुक्त नौका
नए हौसलों की हिलोरें उठाते
नए ज्वार के सर्जना के स्वर में
धरा औ गगन के मिलन गीत गाते.
अभय हो गए जो मुसाफिर विकल थे,
अनिश्चय—अनास्था के दुहरे भरम में,
नई मुक्ति हित में ये लगाएंगे गोता,
नया सेतु बांधेंगे रामेश्वरम् में.

मगर ये तो पहले ही दम हांफ बैठे
झिझकते न तक पतवार तोड़ने में,
कभी बौखलाते हैं अपने वहम पे
कभी अपनी जानिब जुबां मोड़ने में.
अभी तो किनारे से कुछ ही हटे थे
अभी दूर आवर्त घूर्णित घटा तम,
अभी शेष मंझधार की थी चुनौती
अभी देखना था समुंदर का दम—खम
लुटा दी है हर सांस जिसने वतन को
बड़ी साध से जिसने सपने सजाए,
सभी अंग नासूर से रिस रहे हों
मसीहा कहां हाय मरहम लगाए!
इधर कूप उस ओर खाई खुदी है
करे कौन जन—मन व्यथा का निवारण!
उधर नादां बच्चे पर ईमां निछावर
इधर गुट—परस्ती औ बहरूपियापन!
बड़ी ऊंची बातेंबड़े ऊंचे वादे
हवा में रफू हो गए सब हिरन से,
ये तमत्तोम से जूझने के प्रवादी
करेंगे किनाराकशी गर किरन से
ऊफक के धुंधलके में उल्टेगा बेड़ा
कहां फिर उजेलाकहां फिर सवेरा!
ये बेड़ा कहां पार जा कर लगेगा
इधर भी अंधेराउधर भी अंधेरा!
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सांसों ने बार—बार टेरा
बंजारा वक्त नहीं ठहरा है!
सांसों ने बार—बार टेरा
बंजारा वक्त नहीं ठहरा है!
यादों के चाहे हों कैसे भी बांध
एक बार डूब नहीं उगे वही चांद
सपनों को बार—बार हेरा,
व्यर्थ गया पलकों का पहरा है!
एक बूंद से झांके सारा आकाश
कौन प्रहर जाने बन जाए इतिहास
नचा रही बीन या संपेरा,
झूम रहा सांप जो कि बहरा है!
चूक गए अवसर हररीते सब जाल
करते हम रहे सिर्फ तोतले सवाल
गीत गुनगुना रहा मछेरा,
सागर से भी पोखर गहरा है!
मोहरे सब चुके सिर्फ अब बची बिसात
कोलाहल बीत गया फिर सूनी रात
झांक रहा है परिचित चेहरा
कौन कहे शायद यह मेरा है!
सांसों ने बार—बार टेरा
बंजारा वक्त नहीं ठहरा है!
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आता है ज़ज्ब?—दिलकोवह अंदाज़े—मैकशी
रिंदों में रिंद भी रहेंदामन भी तर न हो।।
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बाद मरने के भी दिल लाखों तरह के गम में है।
हम नहीं दुनिया में लेकिन एक दुनिया हम में है।।
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जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो

राम दूवारे जो मरे--(प्रवचन-02)



तुम अभी थे यहांतुम अभी थे यहां।
तुम्हारी सांसों की गंध इन हवाओं में है।
प्यारे कदमों की आहट फिजाओं में है।
तुम्हें देखा किए ये जमीं—आसमां
तुम अभी थे यहांतुम अभी थे यहां।
तुम्हें देखा तो सांसें रुकी ही रहीं
मेरे मालिक! ये आंखें झुकीं ही नहीं,
होश आते ही तुम छुप गए हो कहां!
तुम अभी थे यहांतुम अभी थे यहां।
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जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो

राम दूवारे जो मरे--(प्रवचन--01)


अब तेरी शरण आयो राम।।
जबै सुनिया साध के मुखपतितपावन नाम।।
यही जान पुकार कीन्हीअति सतायो काम।।
विषय सेती भयो आजिजकह मलूक गुलाम।। 
सांचा तू गोपालसांच तेरा नाम है।
जहंवां सुमिरन होयधन्य सो ठाम है।।


सांचा तेरा भक्तजो तुझको जानता।
तीन लोक को राजमनैं नहिं आनता।।
झूठा नाता छोड़ितुझे लव लाइया
सुमिरि तिहारो नामपरम पद पाइया।।
जिन यह लाहा पायोयह जग आइकै
उतरि गयो भव पारतेरो गुन गाइकै।।
तुही मातु तुही पितातुही हितु बंधु है।
कहत मलूकदासबिन तुझ धुंध है।।

कौन मिलावै जोगिया होजोगिया बिन रह्यो न जाई।।
मैं जो प्यासी पीव कीरटत फिरौं पिव पीव।।
जो जोगिया नहिं मिलिहै होतो तुरत निकासूं जीव।।
गुरुजी अहेरी मैं हिरनीगुरु मारैं प्रेम का बान।
जेहि लागै सोई जानई होऔर दरद नहिं जान।।
कहैं मलूक सुनु जोगिनी रेतनहिं में मनहि समाय
तेरे प्रेम के कारने जोगी सहज मिला मोहिं आय।।
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दुनिया जिसे कहते हैंबच्चे का खिलौना है,
मिल जाए तो मिट्टी हैखो जाए तो सोना है.
अच्छा—सा कोई मौसमतन्हा—सा कोई आलम,
हर वक्त का रोना तो बेकार का रोना है!
बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने,
किस राह से बचना हैकिस छत को भिगोना है.
ये वक्त जो तेरा है ये वक्त जो मेरा है,
हर गाम पे पहरा हैफिर भी इसे खोना है.
गम हो कि खुशी दोनों कुछ दूर के साथी हैं,
फिर रस्ता ही रस्ता हैहंसना है न रोना है.
आवारा मिजाजी ने फैला दिया आंगन यों,
आकाश की चादर हैधरती का बिछौना है.
दुनिया जिसे कहते हैंबच्चे का खिलौना है,
मिल जाए तो मिट्टी हैखो जाए तो सोना है.
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तन—मन—प्रानमिटे सबके गुमान
एक जलते मकान के समान हुआ आदमी
छिन गए बानगिरी हाथ से कमान
एक टूटती कृपान का बयान हुआ आदमी
भोर में थकानफिर शोर में थकान,
पोर—पोर में थकान पे थकान हुआ आदमी
दिन की उठान में था उड़ता विमान
हर शाम किसी चोट का निशान हुआ आदमी
तन—मन—प्रानमिटे सबके गुमान
एक जलते मकान के समान हुआ आदमी।
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जुल्म हंस—हंस के सभी सहने लगा है आदमी,
गीदड़ों के रंग में रहने लगा है आदमी.

फूल औ कांटे में वो पहचान कर पाता नहीं,
भीड़ जो कहती हैवही कहने लगा है आदमी.

यह समय की धार से टकरायेगा कैसे भला,
जब कि तिनके की तरह बहने लगा है आदमी.

चंद सिक्कों के लिए संबंध सारे तोड़कर,
हर किसी की बांह को गहने लगा है आदमी.
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जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो

Sunday, 4 September 2016

पद घूंघरू बांध--(प्रवचन--20)


यहां से शहर को देखो तो हल्का-दर-हल्का
खिंची है जेल की सूरत हर एक सम्त फसील
हर एक रहगुजर गर्दिशे-असीरां है
न संगे-मीलन मंजिलन मुख्लसी की सबील
जो कोई तेज चले रहे तो पूछता है खयाल
कि टोकने कोई ललकार क्यों नहीं आई?
जो कोई हाथ हिलाए तो वहम को है सवाल
कोई छनककोई झंकार क्यों नहीं आई?
यहां से शहर को देखो तो सारी खल्कत में
न काई साहिबेत्तमकींन कोई वाली-ए-होश
हर एक मर्दे-जवां मुजरिम-रसन-ब-गुलू
हर एक हसीना-ए-रोना कनीज हल्का-ब-गोश
जो साए दूर चिरागों के गिर्द लर्जा हैं
न जाने महफिले गम है कि बज्मे-जाम-ओ-सबू
जो रंग हर दरो-दीवार पर परीशां है
यहां से कुछ नहीं खुलताये फूल हैं कि लहू।
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उनकी तस्वीर निगाहों में चमक उठी है
आंसुओ! आज तो दम भर के लिए थम जाओ
जाने ये कौन बरसकौन सदी है कि यहां
मेरी नाकाम सदाओं के भटकते आसेब
अपनी ही खोज में आवारा-ओ-दरमांदा है
मुझको जाना था किधर और मैं आया हूं कहां?
अपने जख्मों को लिए कितने नगर घूमा हूं
ले के सामाने-सफर दुखते हुए शानों पर
हाथ पकड़े हुए वहशत-जदा अरमानों का
अजनबी वादियोंदरियाओं में आ पहुंचा हूं
हसरतो-गम की तपिश-रेज गुजर राहों पर
मेरे रिसते हुए छालों के निशां मिलते हैं
जीस्त दम भर को जहां बैठ के सुस्ताती थी
अब वो पीपल के घने साए कहां मिलते हैं
वक्त दम साधे हुए कांप रहा है कि अभी
जिंदगी अपनी कमींगह से निकल आएगी।
और ठोकर उसे मारेगी कि--"चलआगे बढ़!'
इसके पहले कि मिले वक्त को हुक्मे-रफतार
मेरा खोया हुआ चेहरा मुझे वापस दे दो
अपने लब रख के मैं उन ओंठों पे सो जाऊंगा
जिनको चूमे हुए कितने ही बरस बीत गए
रूह में सुर्खिए-लब घुल के उतर जाएगी
सुबह अनफास की निकहत में बस जाएगी
पांव उठेंगे उसी शहर की जानिबकि जहां
कल्ब ने मेरेधड़क उठने का फन सीखा था
दम बखुद वक्त मुझे देख के पूछेगा--
"क्या तेरे शौक की वारफ्तःमिजाजी है वही?'
अपने उलझे हुए बालों की लटें बिखराए
कौन ये गोद में बच्चे को लिए बैठी है
अपने घर-बारदरोबाम से उकताई हुई
--किसलिए आए हैं? क्यों घर में घुसे आते हैं?
जाइए-जाइएआफिस से वो आते होंगे
अजनबी शख्स को देखेंगे तो घबड़ाएंगे
जाने क्या सोचेंगेकुछ सोच के झुंझलाएंगे
कौन वोकौन ये बच्चाये थका-सा चेहरा?
कौन मैंअपने ही पैकर का झिझकता साया
वक्त एहसासे खिजालत से झुकाए हुए सर
अपनी खामोश निगाहों से ये करता है सवाल
"क्या तेरे शौक की वारफ्तःमिजाजी है वही?'
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जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो