सोई सहर सुबह बसे, जहं हरि के दासा।
दरस किए सुख पाइए, पूजै मन आसा।।
साकट के घर साधजन, सुपनैं नहिं जाहीं।
तेइत्तेइ नगर उजाड़ हैं, जहं साधू नाहीं।।
मूरत पूजैं बहुत मति, नित नाम पुकारैं।
कोटि कसाई तुल्य हैं, जो आतम मारैं।।
परदुःख—दुखिया भक्त है, सो रामहिं प्यारा।
एक पलक प्रभु आपतें नहिं राखैं न्यारा।।
दीनबंधु करुनामयी, ऐसे रघुराजा।
कहैं मलूक जन आपने को कौन निवाजा।।
मुवा सकल जग देखिया, मैं तो जियत न देखा कोय, हो।
मुवा मुई को ब्याहता रे, मुवा ब्याह करि देइ।।
मुए बराते जात हैं, एक मुवा बंधाई लेइ, हो।।
मुवा मुए से लड़न को, मुवा जोर लै जाइ।
मुरदे मुरदे लड़ि मरे, मुरदा मन पछिताइ, हो।।
अंत एक दिन मरौगे रे, गलि गलि जैहे चाम।
ऐसी झूठी देह तें, काहे लेव न सांचा नाम, हो।।
मरने मरना भांति है रे, जो मरि जानै कोइ।
रामदुवारे जो मरे, वाका बहुरि न मरना होइ, हो।।
इनकी यह गति जानिके, मैं जहंत्तहं फिरौं उदास।
अजर अमर प्रभु पाइया, कहत मलूकदास, हो।।
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ऊपर कदम तरु पर
बांसुरी बजाते तुम जब ढलती दोपहर
स्वर ऊपर खिंचता हवाओं को खनकाता
शाम धुली अलसाई जमुना के आर—पार
पगडंडी, गांव—गली, घर—आंगन लहराता
सुर—नर—मुनि, जड़—चेतन सब पर करता टोना
नीचे मैं पोखर
कदम तरु के तले एक कच्ची तलैया भर
मैं क्या भला वंशी स्वर को पकड़ पाता?
मुझको मिला सिर्फ तुम्हारी जलछाया का भार
क्षणभंगुर साया जो दिन ढलते खो जाता
रह जाता मैला जल फैला कोना—कोना
वंशी पर तुमने जो भी जादू गाया हो
पर,
कसम धरा लो जो मैंने कुछ भी पाया हो!
बंधती होगी जमुना की धारा वंशी से
यहां तो हमेशा से बंधा हुआ पानी है
कीचड़ है, काई है, सड़े—गले—पत्ते हैं
गंदे जल—सांपों की रेंगती निशानी है
होगी कोई राधा जो खिंच आती होगी
सम्मोहित गति, खिसका आंचल, अधखुल पायल
मुझमें तो केवल कुछ थकी हुई लहरें बस
अपने से टकरातीं अपने से ही घायल
ऊपर मेरे तट पर
बजता रहा वंशी स्वर
करता रहा सुर—नर—मुनि, जड़—चेतन पर टोना
नीचे मैं पोखर
रहा ज्यों—का—त्यों कीचड़ भर
व्यास को जो दिखा नहीं
सूर ने जो लिखा नहीं
मेरे हित सारी यह लीला असंगत रही
बिल्कुल निरर्थक रहा मेरा होना
कदम के तले होना, न होना,
ऊपर कदम तरु पर
बांसुरी बजाते तुम जब ढलती दोपहर
स्वर ऊपर खिंचता हवाओं को खनकाता
शाम धुली अलसाई जमुना के आर—पार
पगडंडी, गांव—गली, घर—आंगन लहराता
सुर—नर—मुनि, जड़—चेतन सब पर करता टोना
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अविनश्वर हुआ रूप
शाश्वत हो गयी प्यास
हर कण चेतन—हुलास
हर क्षण मधु महारास
रजनी की कबरी में, गुंथे स्वर्ण—रश्मि फूल
कुंदन हो गए चरण, चंदन हो गयी धूल
चेतन के सिरहाने
पंखा झलता प्रकाश
मधु लय में तैर गए, पांखी—से मगन छंद
प्राणों से बहा प्यार, फूलों से ज्यों सुगंध
मुट्ठी में बंद हुआ
पूरा मधु महाकाश
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हमने
परिचित नेता से
प्रश्न किया,
"आपने जिस ढंग से
अपने सिर पर
टोपी लगायी है
उसे देखकर
सभी की बुद्धि
भरमायी है
आपको देख कर
लोग कई तरह के
अनुमान लगा रहे हैं
अतः कृपया बताएं
कि आप
पार्टी में आ रहे हैं,
या पार्टी से जा रहे हैं?’’
वे धूर्त की तरह
मुस्करा कर बोले,
"न तो हम
पार्टी में आ रहे हैं
न जा रहे हैं
हम तो सिर्फ यह दिखा रहे हैं
कि हमारे पैरों में अभी दम है
हम चलने—फिरने में
सक्षम हैं
टिकट मिलेगा
तो हम यहां टिक जाएंगे
अन्यथा
जो टिकट देगा
उसी के हाथों,
बिक जाएंगे""।
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निजामे—सुबहो—शामे—देहर है जिसके इशारों पर।
मेरी ग़फलत तो देखो मैं उसे ग़ाफिल समझता हूं।
क्या तुम सोचते हो वह बेहोश है? क्या उसे तुम्हारा पता नहीं?
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ये बेड़ा कहां जाकर पार लगेगा
इधर भी अंधेरा, उधर भी अंधेरा,
नए मांझियों ने नए जोश से कल
नई बल्लियों में नए पाल बांधे,
कमर में उमंगों के फेंटे लपेटे
नई साध से फिर नए डांड़ साधे!
नई बाढ़ में छोड़ दी मुक्त नौका
नए हौसलों की हिलोरें उठाते
नए ज्वार के सर्जना के स्वर में
धरा औ गगन के मिलन गीत गाते.
अभय हो गए जो मुसाफिर विकल थे,
अनिश्चय—अनास्था के दुहरे भरम में,
नई मुक्ति हित में ये लगाएंगे गोता,
नया सेतु बांधेंगे रामेश्वरम् में.
मगर ये तो पहले ही दम हांफ बैठे
झिझकते न तक पतवार तोड़ने में,
कभी बौखलाते हैं अपने वहम पे
कभी अपनी जानिब जुबां मोड़ने में.
अभी तो किनारे से कुछ ही हटे थे
अभी दूर आवर्त घूर्णित घटा तम,
अभी शेष मंझधार की थी चुनौती
अभी देखना था समुंदर का दम—खम
लुटा दी है हर सांस जिसने वतन को
बड़ी साध से जिसने सपने सजाए,
सभी अंग नासूर से रिस रहे हों
मसीहा कहां हाय मरहम लगाए!
इधर कूप उस ओर खाई खुदी है
करे कौन जन—मन व्यथा का निवारण!
उधर नादां बच्चे पर ईमां निछावर
इधर गुट—परस्ती औ बहरूपियापन!
बड़ी ऊंची बातें, बड़े ऊंचे वादे
हवा में रफू हो गए सब हिरन से,
ये तमत्तोम से जूझने के प्रवादी
करेंगे किनाराकशी गर किरन से
ऊफक के धुंधलके में उल्टेगा बेड़ा
कहां फिर उजेला, कहां फिर सवेरा!
ये बेड़ा कहां पार जा कर लगेगा
इधर भी अंधेरा, उधर भी अंधेरा!
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सांसों ने बार—बार टेरा
बंजारा वक्त नहीं ठहरा है!
सांसों ने बार—बार टेरा
बंजारा वक्त नहीं ठहरा है!
यादों के चाहे हों कैसे भी बांध
एक बार डूब नहीं उगे वही चांद
सपनों को बार—बार हेरा,
व्यर्थ गया पलकों का पहरा है!
एक बूंद से झांके सारा आकाश
कौन प्रहर जाने बन जाए इतिहास
नचा रही बीन या संपेरा,
झूम रहा सांप जो कि बहरा है!
चूक गए अवसर हर, रीते सब जाल
करते हम रहे सिर्फ तोतले सवाल
गीत गुनगुना रहा मछेरा,
सागर से भी पोखर गहरा है!
मोहरे सब चुके सिर्फ अब बची बिसात
कोलाहल बीत गया फिर सूनी रात
झांक रहा है परिचित चेहरा
कौन कहे शायद यह मेरा है!
सांसों ने बार—बार टेरा
बंजारा वक्त नहीं ठहरा है!
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आता है ज़ज्ब?—दिलको, वह अंदाज़े—मैकशी।
रिंदों में रिंद भी रहें, दामन भी तर न हो।।
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बाद मरने के भी दिल लाखों तरह के गम में है।
हम नहीं दुनिया में लेकिन एक दुनिया हम में है।।
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जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो