जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा।
और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। .....................ओशो
का सोवै दिन रैन–(प्रवचन–3)
सूत्र:
हमारे का करे हांसी लोग।
मोरा मन लागा सतगुरु से भला होय कै खोर।
जब से सतगुरु—ज्ञान भयो है, चले न केहु के जोर।।
मातु रिसाई पिता रिसाई, रिसाये बटोहिया लोग।
ग्यान — खड्ग तिरगुन को मारूं, पांच — पचीसो चोर।।
अब तो मोहि ऐसी बनि आवै सतगुरु रचा संजोग।
आवत साथ बहुत सुख लागै, जात वियापै रोग।।
धरमदास बिनवै कर जोरी, सुनु हो बन्दी—छोर।
जाको पद त्रैयलोक से न्यारा, सो साहब कस होय।।
साहेब येहि विधि ना मिलै, चित चंचल भाई।
माला तिलक उरमाइके, नाचै अरु गावै।
अपना मरम जानै नहीं, औरन समुझावै।।
देखे को बक ऊजला, मन मैला भाई।।
आंखि मुंदि मौनी भया, मछरी धरि खाई।।
कपट—कतरनी पेट में, मुख वचन उचारी।
अंतरगति साहेब लखै, उन कहां छिपाई।।
आदि अंत की वार्ता, सतगुरु से पावो।
कहै कबीर धरमदास से, मूरख समझावो।।
मेरे मन बस गए साहेब कबीर।
हिंदू के तुम गुरु कहावो, मुसलमान के पीर।।
दोऊ दीन ने झगड़ा मांडेव, पायो नाहिं सरीर।।
सील संतोष दया के सागर, प्रेम प्रतीत मति धीर।
वेद कितेब मते के आगर, दोऊ दीनन के पीर।।
बड़े—बड़े संतन हितकारी, अजरा अमर सरीर।
धरमदास की विनय गुसाईं, नाव लगावो तीर।।
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समझी नहीं हयात की शामो—सहर को मैं
हैरत से देखती रही शम्मो—कमर को मैं
यह कौन गायबाना है, जल्वे दिखा रहा
बेताब पा रही हूं जो अपनी नजर को
मैं
मंजिल का होश है, न अपनी खबर मुझे
मुद्दत से तक रही हूं तेरी रहगुजर
को मैं
दिल की कली कभी न खिली फिर भी आज तक
हसरत से तक रही हूं नसीमे—सहर को मैं
मेरे जसे—शौक का आलम तो देखिए
सज्दे भी कर रही हूं तो अपने ही दर
को मैं
मुड—मुड के देखने पर वह मजबूर हो गए
अब कामयाब पाती हूं अपनी नजर को मैं
यह किसके नक्शे—पा ने हैं थामे मेरे कदम
मंजिल समझ कर बैठ गई रहगुजर को मैं
माना नहीं है कोई तबस्तुम—नवाज आज
फिर भी परख रही हूं किसी की नजर को
मैं
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वसीयत मीर ने मुझको यही की,
कि सब कुछ होना, तू आशिक न होना।
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इश्क पर जोर नहीं, है ये वो आतिश गालिब
कि लगाए न लगे, और बुझाए न बुझे।
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इश्क से लोग मना करते हैं
जैसे कुछ इख्तियार है अपना।
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हमने अपने से की बहुत, लेकिन
मर्जे इश्क का इलाज नहीं।
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इंसान को बे इश्क सलीका नहीं आता
जीना तो बड़ी चीज है, मरना भी नहीं आता।
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और धर्म विद्रोह है। और प्रेम
विद्रोह का पाठ सिखाता है।
कोयल की सदाएं आती हों जब रह—रह के गुलजारों से
इक नग्मए—शीरीं फूट पड़े जब दिल के नाजुक
तारों से
उस वक्त हटाके पर्दो को तू काश चमन
में दर आए
हस्ती क मेरा जरी — जरी तस्वीरे मसर्रत बन जाए।
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थी वह निगाहे नाज या नावक का तीर था
मिलते ही आंख रह गया मैं कह के :
हाय दिल!
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खून बन कर मेरी आंखों से टपकने वाले
नूर बन कर मेरी आंखों में समाया
क्यों था?
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इश्क जन्नत है आदमी के लिए।
इशक नेमत है आदमी के लिए।
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तेरा इमाम बेहजर, तेरी नमाज बेसरूर
ऐसी नमाज से गुजर, ऐसे इमाम से गुजर
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जाहिदे कमनिहाद ने रस्म समझ लिया तो
क्या
कसदे कयाम और है रस्मे— कयाम से गुजर
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जख्मे—दिल पर दवा तो लग जाए
आंख मेरी जरा तो लग जाए
खून हो—होके दिल टपकता है
इसके मुंह को मजा तो लग जाए
रक्शे—आलम को यूं ही रहने दो
दिल मिरा एक जौ तो लग जाए
क्यों दरे—मैकदा का बंद करें
शेख गुजरे हवा तो लग जाए
उसको दुनिया में ढूंढ ही लेंगे
अपने दिल का पता तो लग जाए
मगर अपने दिल का पता ही नहीं लगता।
और परमात्मा को लोग खोजने चल पड़ते हैं, स्वयं को अभी खोजा नहीं।
उसको दुनिया में ढूंढ ही लेंगे
अपने दिल का पता तो लग जाए
खाक ही होके चैन पा जाऊं
मुझको इक बदुआ तो लग जाए
तुझको मेरा पता लगाना है
मेरे आलम में आ, तो लग जाए
लाख वह बेवफा सही ”सलमा”
उसको मेरी वफा तो लग जाए
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जब कली कोई मुस्कराती है
मेरी आंख अश्क से भर आती है
दूर बजती हो जैसे शहनाई
इस तरह उनकी याद आती है
दिल की किश्ती निकल के तूफां से
आके साहिल पै डूब जाती है
जैसे जमना में अक्से—ताजमहल
दिल में यूं उनकी याद आती है
सुबहे—नौ की किरन उफक के करीब
सुर्ख घूंघट में मुस्कराती है।
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