यह मैकदा है मगर अब वह लुत्फे —आम कहां?
वह रक्शे—जाम वह रिदाने—तिश्नाकाम कहां?
गुदाजे—सीनए—मुतरिब न सोजे—नग्मए—नै
वह बेकरारिए—महफिल का एहतमाम कहां?
इधर तही है सुबू, उस तरफ तही सागर!
वह बादा—रेजिए—महफिल की सुबहो—शाम कहां?
मिटे हुए—से हैं कुछ नक्शे—पा जरूर मगर
रहे तलब में वह यारानेतेजगाम कहां?
नवाए—वक्त बहुत गुलफिशां सही लेकिन
वह जा नवाज मुहब्बत अदा पयाम कहा?
श्मीमे—शामे—मुहब्बत को क्या करूं ”अख्तर”!
नसीमे—सुबहेत्तमन्ना का वह खसम कहां?
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मुझे खुद भी खबर नहीं ”अख्तर”
जी रहा हूं कि मर रहा हूं मैं।[phe
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मुझे खुद भी खबर नहीं ”अख्तर”
जी रहा हूं कि मर रहा हूं मैं।[phe
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तबीयत
बुझ गई उजड़ा खुशी का गुलसिता अपना।
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ख्वाब
देखा था कि कुछ याद है कुछ याद नहीं।
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दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए।
क्षण आते हैं, पाते क्या हो; और कितनी गिनती की थी कितनी प्रतीक्षा की थी।
वस्ल का दिन और इतना मुख्तसर
दिन
गिने जाते थे इस दिन के लिए।
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उन्हीं की याद से हर लहजा काम रहता है
नजर को सागरे—गम में डुबोए रहती हूं
तसव्वुरात की दुनिया में खोए रहती हूं
न होशे—हाल न एहसासे—हाल रहता है
बस एक सिर्फ उन्हीं का खयाल रहता है
हजार दिल से हम उनको भुलाए जाते हैं
न जाने क्यों वह हमें याद आए जाते हैं
अंधेरी रात में भी मंजरे—दरख्शां हैं
जिधर निगाह उठाती हूं वोह नुमायां हैं
सबा के दोश पै उनके सलाम आते हैं
सतारे लेके नया इक पयाम आते हैं
सतनामै जपु, जग लड़ने दे।।
आज इतना ही।
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सूत्र:
कहंवा से जीव आइल, कहंवा समाइल हो।कहंवा कइल मुकाम, कहां लपटाइल हो।।
निरगुन से जिव आइल, सरगुन समाइल हो।
कायागढ़ कइल मुकाम, माया लपटाइल हो।।
एक बूंद से काया—महल उठावल हो।
बूंद पड़े गलि जाय, पाछे पछतावल हो।।
हंस कहै, भाई सरवर, हम उड़ि जाइब हो।
मोर तोर एतन दिदार, बहुरि नहिं पाइब हो।।
इहवां कोइ नहिं आपन, केहि संग बोलै हो।
बिच तरवर मैदान, अकेला हंस डोलै हो।।
लख चौरासी भरनि, मनुषतन पाइल हो।
मानुष जनम अमोल, अपन सों खोइल हो।।
साहेब कबीर सोहर सुगावल, गाइ सुनावल हो।
सुनहु हो धरमदास, रही चित चेतहु हो।।
सतनामै जपु, जग लड़ने दे।।
यह संसार कांट की बारी, अरुझि—अरुझि के मरने दे।
हाथी चाल चलै मोर साहेब, कुतिया भुकै तो भुकने दे।।
यह संसार भादो की नदिया, डूब मरै तेहि मरने दे।
धरमदास के साहेब कबीरा, पत्थर पूजै तो पुजने दे।।
जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा।
और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया।
ओशो
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