मुहब्बत में कुछ कामत और भी हैं
तेरे गम के कुछ सजदा और भी हैं
संभल कर जरा जल्वए—
तूरे—
मूसा
हरीफे रुखे कहकशां और भी हैं
कमर को हैं बेवजह क्यों नाजे बेजा
सबाबे गुलो—
गुलसिता और भी हैं
और भी बगीचे हैं,
और भी पर्वत—
मालाएं हैं।
”
कमर को है बेवजह क्यों नाजे बेजा?
”
इस चंद्रमा में ही मत अटक जाना। यह
चंद्रमा व्यर्थ ही गुमान कर रहा है।
कमर को है बेवजह क्यों नाजे बेजा
सबाबे गुलो—
गुलसिता और भी हैं
उद्यान और भी हैं,
फूल और भी हैं।
अभी नामुकम्मल—
सी बरबादिया हैं
निगाहों में कुछ बिजलियां और भी हैं
लबों पर ही रक्सां नहीं गीत उनके
निगाहों में राजे निहा और भी हैं
मयस्सर नहीं सर्पे—
गम तुमको रैना
तुम्हारे
सिवा कामत और भी हैं
जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा।
और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया।
ओशो
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