जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा।
और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। .................ओशो
का सोवै दिन रैन–(प्रवचन–2)
का सोवै दिन रैन–(प्रवचन–2)
क्योंकर गुजर रहे हैं मेरी जिंदगी
के दिन
यह मैं तुम्हें बता नहीं सकती हूं, क्या करूं;
मुझको तेरे फिराक का एहसास है मगर
मैं तेरे पास आ नहीं सकती हूं, क्या करूं?
यह ठंढी—ठंढी आग, मुहब्बत कहें जिसे
यह आग मैं बुझा नहीं सकती हूं, क्या करूं?
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जब मेरे पास वे नहीं होते, उनसे होती हैं राज की बातें
जिन पै मौसीकिओं को वज्द आए, हाय उस मस्ते नाज की बातें
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कभी इधर भी चले आओ कैफ बरसाते
सबू कदे की फजाएं सलाम करती हैं
खयाले दोस्त यह चुपके से उनसे कह देना
तुम्हें किसी की वफाएं सलाम करती
हैं
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किसी की याद में आंसू बहा रही हूं
मैं
हदीसे—दर्दे—मुहब्बत सुना रही हूं मैं
संभल जमानए—हाजिर की तुझसे कुछ पहले
करीब मजिले—मकसूद जा रही हूं मैं
सुनी है जब से खबर उनकी आमद—आमद की
हरीमे—दीदए—दिल को सजा रही हूं मैं
अभी जमाना नहीं उनके आजमाने का
अभी तो अपने को खुद आजमा रही हूं
मैं,
नफस—नफस है मेरा साजे—गैब ऐ ”अख्तर”!
जो सुन रही हूं जहां को सुना रही
हूं मैं
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हर नफ्स मौत का इशारा है
जिंदगी आंसुओ का धारा है
हमने अपने लहू की सुर्खी से
चहरए—जिंदगी निखारा है
आज गुलशन में खारो—खस ने भी
लाल—ओ—गुल का रूप धारा है
दिल धड़कता है इस तरह जैसे
कोई टूटा हुआ सितारा है
जिंदगी के उदास लम्हों में
अब तेरे नाम का सहारा है
हमने इस जिंदगी से घबराकर
बारहा मौत को पुकारा है
जब से वह है शरीके—गम ”रूही”
हर गमे—जिंदगी गवारा है
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खिलाओ फूल तबस्सुम से गुलसिता बन
जाओ
गुलों का नग्मा बहारों की दास्तां
बन जाओ
नजर—नजर में सितारों की ताबिशें भर दो
हमारी अंजुमने—दिल में कहकशां बन जाओ
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उठाओ—पर्दए—रुख माहे जौ—फिशां बन जाओ
दिलेतबाह को तसकीं तो हो किसी सूरत
सितम से बाज न आओ तो महरबां बन जाओ
निबाहो रस्मे — मुहब्बत तुम अपनी ”शबनम” से
नजर से दिल में समा जाओ सजदा बन जाओ
सत्संग प्रेम का परम रूप है। जैसे
दो प्रेमी एक—दूसरे
के हिस्से हो जाते हैं, ऐसा
गुरु और शिष्य एक—दूसरे
के हिस्से हो जाते हैं।
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