Sunday, 19 July 2015

का सोवै दिन रैन–(प्रवचन–5)




तारों से सोना बरसा था, चश्मों से चांदी बहती थी
फूलों पर मोती बिखरे थे, जर्री की किस्मत चमकी थी
कलियों के लब पर नग्मे थे, शाखों पै वज्दसा तारी था
खुशबू के खजाने लुटते थे, और दुनिया बहकीबहकी थी
ऐ दोस्त! तुझे शायद वह दिन अब याद नहीं, अब याद नहीं
सूरज की नरम सुआओं से कलियों के रूप निखरते हों
सरसों की नाजुक शाखों पर सोने के फूल लचकते हों
जब ऊदेऊदे बादल से अमृत की धारें बहती थीं
और हल्कीहल्की खुनकी में दिल धीरेधीरे तपते थे
ऐ दोस्त! तुझे शायद वह दिन अब याद नहीं, अब याद नहीं
फूलों के सागर अपने थे, शबनम की सहबा अपनी थी
जर्री के हीरे अपने थे, तारों की माला अपनी थी
दरिया की लहरें अपनी थीं, लहरों का तरन्नुम अपना था
जर्री से लेकर तारों तक यह सारी दुनिया अपनी थी
ऐ दोस्त! तुझे शायद वह दिन अब याद नहीं, अब याद नहीं
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है आखिरत का खौफ, गमेदीनवी के बाद
एक और भी जिंदगी है इस जिंदगी के बाद
वाइजयह बंदगी कहीं बेकार हो न जाए
तू बंदगी पर नाज न कर बंदगी के बाद
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एक और जिंदगी भी है इस जिंदगी के बाद
है आखिरत का खौफ गमेदीनवी के बाद
एक और जिंदगी भी है इस जिंदगी के बाद
वाइजयह बंदगी कहीं बेकार हो न जाए
तू बंदगी पर नाज न कर बंदगी के बाद
पिन्हा हजार गम हैं मसर्रत की ओट में
आंसू कहीं तड़प के न निकलें हंसी के बाद
इसा को है जरूरतेअम्नोअमा मगर
पैगामे अम्न दीजे न इंशांकशी के बाद
क्या उनसे रहबरी की तवक्कअ रखे कोई
जो आ सके न राह पै बेरहरवी के बाद।
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झलक तुम्हारी मैंने पाई सुखदुःख
ललक गया मैं सुख की बांहों में
जबजब उसने चुमकारा।
औ ललकारा जबजब दुःख ने
कब मैं अपना पौरुष हारा;
आलिंगन में प्राण निकलते।
खड्ग तले जीवन मिलता है;
झलक तुम्हारी मैंने पाई सुखदुःख दोनों की सीमा पर।
सब सुख का बलिदान, तुम्हारे
पांवों की आहट अब आती
सब दुःख का अवसान, तुम्हारी
मूर्ति नयन में ढलती जाती,
जहां न सुख है जहां न दुःख है,
तुम हो एक——दूसरा मैं हूं,
जीभ तीसरी जो गाती है ऐसे क्षण को गीत बनाकर!
झलक तुम्हारी मैंने पाई सुखदुःख दोनों की सीमा पर।
सुखदुःख की सीमा पर साक्षी का जन्म है। सुखदुःख के ठीक मध्य में! न मैं सुख हूं, न मैं दुःख हूं। न मैं देह हूं, न मैं मन हूं। न मैं यह हूं, मैं वह हूं। नेतिनेति। वहीं साक्षी का आविर्भाव है। और जो साक्षी हो जाता है, केवल वही पछताता नहीं, शेष सब पछताते हैं।
हीरा जन्म न बारंबार, समुझि मन चेत हो।
आज इतना ही।
 सूत्र:
हीरा जन्म न बारंबार, समुझि मन चेत हो।।
जैसे कटि पतंग पषान, भए पसु पच्छी।
जल तरंग जल माहि रहे, कच्छा औ मच्छी।।
अंग उघारे रहे सदा, कबहुं न पावै सुक्ख।
सत्य नाम जाने बिना, जनम जनम बड़ दुक्ख।।
सीतल पासा ढारि, दाव खेलो सम्हारी।
जीतौ पक्की सार, आव जनि जैहौ हारी।।
रामै राम पुकारिके, लीनो नरक निवास।
मुड गडाए रहे जिव, गर्भ माहि दस मास।।
नाहिं जाने केहि पुण्य, प्रकट भे मानुषदेही।
मन बच कर्म सुभाव, नाम सों कर ले नेही।।
लख चौरासी भर्मिके, पायो मानुषदेह।
सो मिथ्या कस खोवते, झूठी प्रीतिसनेह।।
बालक बुद्धि अजान, कछु मन में नहिं जाने।
खेलै सहज सुभाव, जहीं आपन मन माने।।
अधर कलोले होय रह्यो, ना काहू का मान।
भरी बुरी न चित धरै, बारह बरस समान।।
जीवन रूप अनूप, मसी ऊपर मुख छाई।
अंग सुगंध लगाए, सीस पगिया लटकाई।।
अंधे भयो ज्ये नहीं, फटि गई हैं चार।
जोवन जोर झकोर, नदी उर अंतर बाढ़ी।
संतो हो हुसियार, कियो ना बाहू गाढ़ी।।
दे गजगीरी प्रेम की, मदो दसो दुआर।
वा साईं के मिलन में, तुम जनि लावो बार।।
वृद्ध भए पछिताय, जबै तीनों पन हारे।
भई पुरानी प्रीति, बोल अब लागत प्यारे।।
लचपच दुनिया है रही, केस भए सब सेत।
बोलन बोल न आवई, लूटि लिए जम खेत।।

जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो

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