Wednesday, 9 September 2015

अष्‍टावक्र: माहागीता–भाग-1 (ओशो) प्रवचन–2


अष्‍टावक्र: माहागीता–भाग-1 (ओशो) प्रवचन–2
जो कुछ सुंदर था, प्रेय, काम्य
जो अच्छा, मजा, नया था, सत्य—सार
मैं बीन—बीन कर लाया
नैवेद्य चढ़ाया
पर यह क्या हुआ?
सब पड़ा पड़ा कुम्हलाया
सूख गया, मुर्झाया
कुछ भी तो उसने हाथ बढ़ा कर नहीं लिया!
यूं कहीं तो था लिखा
पर मैंने जो दिया, जो पाया,
जो पिया, जो गिराया,
जो ढाला, जो छलकाया,
जो निथारा, जो छाना
जो उतारा, जो चढ़ाया,
जो जोड़ा, जो तोड़ा, जो छोड़ा
सबका जो कुछ हिसाब रहा,
मैंने देखा कि उसी यज्ञ—ज्वाला में गिर गया
और उसी क्षण मुझे लगा कि
अरे मैं तिर गया!
ठीक है, मेरा सिर फिर गया।
तिरता है आदमी—सिर के फिरने से।
परमात्मा को तुम चढ़ाओ चुन—चुन कर चीजें, अच्छी— अच्छी चीजें—उससे कुछ न होगा, जब तक कि सिर न चढ़े। सुनो फिर :
जो कुछ सुंदर था, प्रेय, काम्य
जो अच्छा, मजा, नया था, सत्य—सार
मैं बीन —बीन कर लाया नैवेद्य चढ़ाया
पर यह क्या हुआ?
सब पड़ा —पड़ा कुम्हलाया
सूख गया, मुर्झाया
कुछ भी तो उसने हाथ बढ़ा कर नहीं लिया।
तुम ले आओ सुंदरतम को खोज कर, बहुमूल्य को खोज कर, चढ़ाओ कोहिनूर—कुम्हलायेंगे! तोड़ो फूल कमल के, गुलाब के, चढाओ—कुम्हलायेगे! एक ही चीज वहां स्वीकार है—वह तुम्हारा सिर; वह तुम्हारा अहंकार; वह तुम्हारी बुद्धि; वह तुम्हारा मन। अलग— अलग नाम हैं; बात एक ही है। वहां चढ़ाओ अपने को।
और उसी क्षण मुझे लगा कि
अरे मैं तिर गया
ठीक है, मेरा सिर फिर गया
-----------------------------------------
एक धुन की तलाश है मुझे
जो ओठों पर नहीं
शिराओं में मचलती है
लावे—सी दहकती है—
पिघलने के लिए
एक आग की तलाश है मुझे
कि रोम—रोम सीझ उठे
और मैं तार—तार हो जाऊं!
कोई मुझे जाली—जाली बुन दे
कि मैं पारदर्शी हो जाऊं!
एक खुशबू की तलाश है मुझे
कि भारहीन हो, हवा में तैर सकूं
हलकी बारिश की महीन बौछारों में कांप सकूं गहराती सांझ के स्लेटी आसमान पर
चमकना चाहता हूं कुछ देर,
एक शोख रंग की तलाश है मुझे!
--------------------------------------------------------------------------------
राही रुके हुए सब भीतर का पानी अधहंसा बाहर जमी बरफ है
एक तरफ छाती तक दल—दल अगम
बाढ़ का दरिया एक तरफ है। मनमानी बह रही हवाएं जंगल झुके हुए सब
राही रुके हुए सब।
बंद द्वार, अधखुली खिड़कियां
झांक रहीं कुछ आंखें
सूरज के मुंह पर संध्या की
काली अनगिन तीर सरीखी—सी
चुभती हुई सलाखें अपने चेहरे के पीछे चुप सहमे लुके हुए सब
राही रुके हुए सब! अपने चेहरे के पीछे चुप
सहमे लुके हुए सब
राही रुके हुए सब!
जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो

No comments:

Post a Comment