Monday, 14 September 2015

अष्‍टावक्र: माहागीता–भाग-1(ओशो) प्रवचन–9


करना है हमें कुछ दिन
संसार का नजारा
इंसान का जीवन तो
दर्शन का झरोखा है
ये अक्ल भी क्या शै है
जिसने दिले—रंगी को
हर काम से रोका है
हर बात पे टीका है
आरास्ता ए मानी
तखईल है शायर की
लफ्तों में उलझ जाना
फन काफिया—गो का है
ये अक्ल भी क्या शै है
जिसने दिले—रंगी को
हर काम से रोका है
हर बात पे टोका है!
जब भी हृदय में कोई तरंग उठती है, तो बुद्धि तत्क्षण रोकती है। जब भी कोई भाव गहन होता है, बुद्धि तत्क्षण दखलंदाजी करती है।
ये अक्ल भी क्या शै है
जिसने दिले—रंगी को
हर काम से रोका है,
हर बात पे टोका है!
तुम इस अक्ल को थोड़ा किनारे रख देना—थोड़ी देर को ही सही, क्षण भर को ही सही। उन क्षणों में ही बादल हट जाएंगे, सूरज का दर्शन होगा। अगर इस अक्ल को तुम हटा कर न रख पाओ, तो यह टोकती ही चली जाती है। टोकना इसकी आदत है। टोकना इसका स्वभाव है। दखलंदाजी इसका रस है।
और धर्म का संबंध है हृदय से, वह तरंग खराब हो जायेगी। उस तरंग पर बुद्धि का रंग चढ़ जायेगा, और बात खो जायेगी। तुम कुछ का कुछ समझ लोगे।
आरास्ता ए मानी,
तखईल है शायर की!
जो वास्तविक कवि है, मनीषी है, ऋषि है, वह तो अर्थ पर ध्यान देता है।
आरास्ता ए मानी,
तखईल है शायर की!
उसकी कल्पना में तो अर्थ के फूल खिलते हैं, अर्थ की सुगंध उठती है।
लफ्जों में उलझ जाना
फन काफिया—गो का है।
लेकिन जो तुकबंद है, काफिया—गो, वह शब्दों में ही उलझ जाता है। वह कवि नहीं है। तुकबंद तो शब्दों के साथ शब्दों को मिलाए चला जाता है। तुकबंद को अर्थ का कोई प्रयोजन नहीं होता, शब्द से शब्द मेल खा जाएं, बस काफी है।
बुद्धि तुकबंद है, काफिया—गो है। अर्थ का रहस्य, अर्थ का राज, तो हृदय में छिपा है। तो बुद्धि को हटा कर सुनना, तो ही तुम सुन पाओगे।

खैर, खून, खांसी, खुशी, वैर, प्रीत, मधुपान,
रहिमन दाबे न दबे, जानत सकल जहांन।

न था कुछ तो खुदा था
कुछ न होता तो खुदा होता।
डुबोया मुझको होने ने न
होता मैं तो क्या होता?
डुबोया मुझको होने ने! हम कहेंगे रामतीर्थ ने आत्महत्या कर ली। रामतीर्थ कहेंगे, डुबोया मुझको होने ने! यह तो डूब कर गंगा में मैं पहली दफे हुआ। जब तक था, तब तक डूबा था।
न था कुछ तो खुदा था,
कुछ न होता तो खुदा होता।
डुबोया मुझको होने ने
न होता मैं तो क्या होता?
खुदा होते! परमात्मा होते!

मैं वो गुम—गुस्ता मुसाफिर हूं कि आप अपनी मंजिल हूं
मुझे हस्ती से क्या हासिल, मैं खुद हस्ती का हासिल हूं।

दिल में वो तेरे है मकीं
दिल से तेरे अलग नहीं।
वह परम सत्य तेरे दिल में बसा है।
दिल में वो तेरे है मकीं
उसने वहीं मकान बनाया है।
दिल से तेरे अलग नहीं।
तुझसे जुदा वो लाख हो
तू न उसे जुदा समझ।




जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो

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