Monday, 14 September 2015

अष्‍टावक्र: माहागीता–भाग-1 (ओशो) प्रवचन–8


मुसलसल खामोशी की ये पर्दापोशी,
अबस है कि अब राजदा हो गये हम।
सुकूं खो दिया हमने तेरे जुनू में,
तेरे गम में शोला—बजी हो गये हम।
हुए इस तरह खम जमानों के हाथों,
कभी तीर थे, अब कमी हो गये हम।
न रहबर न कोई रफीके—सफर है,
ये किस रास्ते पर रवी हो गये हम।
हमें बेखुदी में बड़ा लुक आया
कि गुम हो के मजिलनिशा हो गये हम।
यह मंजिल ऐसी है कि खो कर मिलती है। तुम जब तक हो, तब तक नहीं मिलेगी; तुम खोये कि मिलेगी।
हमें बेखुदी में बड़ा लुक आया
जहां तुम नहीं, जहां तुम्हारा अहंकार गया, जहां बेखुदी आई..।
हमें बेखुदी में बड़ा लुक आया
कि गुम हो के मजिलनिशा हो गये हम।
कि खो कर और पहुंच गये! यह रास्ता मिटने का रास्ता है।
तो अगर तुम्हें लगता है, ‘मेरी समर्पण की पात्रता कहां?’ तो मिटना शुरू हो गये, बेखुदी आने लगी। अगर तुम्हें लगता है कि ‘मेरी श्रद्धा कहां?’ तो बेखुदी आने लगी, तुम मिटने लगे।
संन्यास यही है कि तुम मिट जाओ, ताकि परमात्मा हो सके।
न रहबर, न कोई रफीके—सफर है!
यह तो बड़ी अकेले की यात्रा है।
न रहबर, न कोई रफीके—सफर है!
न कोई साथी है, न कोई मार्गदर्शक है। अंततः तो गुरु भी छूट जाता है, क्योंकि वहां इतनी जगह भी कहां! प्रेम—गली अति सीकरी, तामें दो न समाये! वहां इतनी जगह कहां कि तीन बन सकें! दो भी नहीं बनते। तो शिष्य हो, गुरु हो, परमात्मा हो, तब तो तीन हो गए! वहां तो दो भी नहीं बनते। तो वहां गुरु भी छूट जाता है। वहा तुम भी छूट जाते; वहा परमात्मा ही बचता है।
न रहबर, न कोई रफीके—सफर है
ये किस रास्ते पर रवी हो गये हम।
संन्यास तो बड़ी अनजानी यात्रा है; बड़ी हिम्मत, बड़े साहस की यात्रा है! जो अनजान में उतरने का जोखिम ले सकते हैं—उनकी। यह होशियारों, हिसाब लगाने वालों का काम नहीं। यह कोई गणित नहीं है। यह तो प्रेम की छलांग है।

हर तरकीब खोटी पड़ गई
आखिर जिंदगी छोटी पड़ गई।

अलबेले अरमानों ने सपनों के बुने हैं जाल कई।
एक चमक ले कर उठे हैं, जज्जाते —पामाल कई।
रूप की मस्ती ,प्यार का नशा ,नाम की अजमत ,जर का गुरूर
धरती पर इन्सां के लिए हैं, फैले मायाजाल कई।
अपनी—अपनी किस्मत है, और अपनी—अपनी फितरत है,
खुशियों से पामाल कई हैं, गम से मालामाल कई।
इंसानों का काल पड़ा है, वक्त कड़ा है दुनिया पर,
ऐसे कड़े कब वक्त पड़े थे, यूं तो पड़े हैं काल कई।
दिल की दौलत कम मिलती है, दौलत तो मिलती है बहुत,
दिल उनके मुफलिस थे हमने देखे अहलेमाल कई।
कितने मंजर पिनहा हैं, मदहोशी की गहराई में,
होश का आलम एक मगर, मदहोशी के पाताल कई।

उम्र ढलती जा रही है
शमा—ए—अरमां भी पिघलती जा रही है,
रफ्त—रफ्ता आग बुझती जा रही है,
शौक रमते जा रहे हैं
सैल थमते जा रहे हैं
राग थमता जा रहा है
खामोशी का रंग जमता जा रहा है,
आग बुझती जा रही है।

उजियारे में नैन मूंद कर भाग नहीं
मेरे भोले मन।
डगरें सब अनजानी हैं,
पथ में मिलते शूल—शिला
भीनी—भीनी गंध देख कर,
सुमनों का विश्वास न कर!
तुम जरा खयाल करना, जाग कर कदम उठाना! क्योंकि तुम जो कदम उठाओगे, वह कहीं भीनी—भीनी गंध को देख कर ही मत उठा लेना।
पथ में मिलते शूल—शिला
भीनी— भीनी गंध देख कर
सुमनों का विश्वास न कर।
वह जो तुम्हें भीनी गंध मिलती है, खयाल कर लेना, वह कहीं तुम्हारी आरोपित ही न हो! वह कहीं तुम्हारा लोभ ही न हो! वह तुम्हारा कहीं भय ही न हो! वह कहीं तुम्हारी कमजोरी ही न हो, जो तुम आरोपित कर लेते हो। और उस भीनी गंध में तुम भटक मत जाना।

सांस का पुतला हूं मैं
जरा से बंधा हूं
और मरण को दे दिया गया हूं
पर एक जो प्यार है न
उसी के द्वारा,
जीवन—मुक्त मैं किया गया हूं!
काल की दुर्वह गदा को
एक कौतुक— भरा बाल क्षण तौलता है।
हो क्या तुम?
सांस का पुतला हूं मैं
जरा से बंधा हूं?
और मरण को दे दिया गया हूं!
जन्म और मृत्यु, बस यही तो हो तुम। सांस आई और गई, इसके बीच की थोड़ी—सी कथा है, थोड़ा—सा नाटक है। इसमें अगर कुछ भी है, जो तुम्हें पार ले जा सकता है मृत्यु के और जन्म के……..
पर एक जो प्यार है न
उसी के द्वारा,
जीवन—मुक्त मैं किया गया हूं!
अगर जन्म और मरण के बीच प्यार घट जाये…….।
संन्यास तो मेरे साथ प्रेम में पड़ना है; इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। बस इतना ही, इतनी ही परिभाषा। अगर तुम मेरे साथ प्रेम में हो और थोड़ी दूर चलने को राजी हो, तो वह थोड़ी दूर चलना, तुम्हें बहुत दूर ले जाने वाला सिद्ध होगा।
और बाकी तो सब ऊपर की बातें हैं, कि तुमने कपड़े बदल लिये, कि माला डाल ली। वह तो केवल तुम्हें साहस जगे और तुम्हें आत्म—स्मरण रहे, इसलिए। वह तो केवल बाहर की शुरुआत है; फिर भीतर बहुत कुछ घटता है। तुम जिनको देख रहे हो गैरिक वस्त्रों में रंगे हुए उनके सिर्फ गैरिक वस्त्र हो मत देखना, थोड़ा उनके हृदय में झांकना—तो तुम वहां पाओगे प्रेम की एक नई धारा का आविर्भाव हो रहा है।
पर एक जो प्यार है न,
उसी के द्वारा
जीवन—मुक्त मैं किया गया हूं!
मुझे गिरने दो तुम्हारे ऊपर! अभी तुम अगर पाषाण भी हो तो फिक्र मत करो : यह जलधार तुम्हारे पाषाण को काट डालेगी।
किरण जब मुझ पर झरी
मैंने कहा—
मैं वज्र कठोर हूं,
पत्थर सनातन!’
किरण बोली—’ भला ऐसा?
तुम्हीं को खोजती थी मैं
तुम्हीं से मंदिर गढूंगी
तुम्हारे अंतकरण से तेज की प्रतिमा उकेरूंगी। ‘
स्तब्ध मुझको, किरण ने अनुराग से दुलरा लिया।
किरण जब मुझ पर झरी मैंने कहा—
मैं वज्र कठोर हूं
पत्थर सनातन!’
तुम भी यही मुझसे कहते हो कि नहीं, आप हमें बदल न पायेंगे, कि हम पत्थर हैं, बहुत प्राचीन, कि न बदलने की हमने कसम खा ली है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं :
किरण बोली—’ भला ऐसा?
तुम्हीं को खोजती थी मैं
तुम्हीं से मंदिर गढूगी
तुम्हारे अंतःकरण से तेज की प्रतिमा उकेरूंगी। ‘
स्तब्ध मुझको किरण ने अनुराग से दुलरा लिया।
ये गैरिक वस्त्र तो केवल मेरे प्रेम की सूचना हैं—तुम्हारे प्रेम की मेरी तरफ; मेरे प्रेम की तुम्हारी तरफ। यह तो एक गठबंधन है।

किंतु नहीं क्या यही धुंध है सदावर्त
जिसमें नीरंध्र तुम्हारी करुणा
बंटती रहती है दिन—याम
कभी झांक जाने वाली छाया ही
अंतिम भाषा, संभव नाम
करुणाधाम
बीजमंत्र यह
सारसूत्र यह
गहराई का एक यही परिमाण
हमारा यही प्रणाम
धुंध ढकी,
कितनी गहरी वापिका तुम्हारी,
लघु अंजुली हमारी!
प्रभु के सामने तो हमारे हाथ सदा छोटे ही पड़ जाते हैं! हमारी अंजुली छोटी है!
धुंध ढंकी
कितनी गहरी वापिका तुम्हारी
लघु अंजुली हमारी!
जिनके हृदय में भी प्रेम है, उन्हें सदा ही लगेगा हमारी अंजुली बड़ी छोटी है।
पूछा है जया ने—
हे प्रिय प्यारे, प्रणाम ले लो
इन आंसुओं को मुकाम दे दो
तुमने तो भर दी है झोली
फिर भी मैं कोरी की कोरी।’
यह कुछ ऐसा भराव है, कि इसमें आदमी और—और शून्य होता चला जाता है। यह शून्य काही भराव है। यह शून्य से’ ही भराव है। तुम्हें कोरे करने का ही मेरा प्रयास है। अगर तुम कोरे हो गये तो मैं सफल हो गया। अगर तुम भरे रह गये तो मैं असफल हो गया। तुम जब बिलकुल कोरे हो जाओगे और तुम्हारे भीतर कुछ भी न रह जायेगा—कोई रेखा, कोई शब्द, कोई कूड़ा—कचरा—तुम्हारी उस शून्यता में ही परमात्मा प्रगट होगा।
जया से कहूंगा :
जा, आत्मा जा
कन्या वधु का,
उसकी अनुगा
वह महाशून्य ही अब तेरा पथ
वह महाशून्य ही अब तेरा पथ
लक्ष्य अन्य जल पालक
पति आलोक धर्म
तुझको वह एकमात्र सरसायेगा
ओ आत्मा री!
तू गई वरी
ओ संपृक्ता
आ परिणीता,
महाशून्य के साथ भांवरें तेरी रची गईं।
महाशून्य के साथ भांवरें तेरी रची गईं! यह रिक्त होना, यह कोरा होते जाना—महाशून्य के साथ भांवरों का रच जाना है। नाचते, उस शून्य के महाभाव को प्रगट करते, गुनगुनाते, मस्त, खोते जाना है!




जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो

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