का सोवै दिन रैन–(प्रवचन–11)
दुनिया पै है तारी रंग नया आलम ने भी बदले है चोले
यह किसने अदाए — खास से फिर रुखसारे — महो — अंजुम खोले
और एक हसीन अंगड़ाई की हर जुंबिश से मोती रोले
फिर आज तुम्हें शायद छूकर यह मस्त हवाएं आई हैं।
कुछ दर्द—सा है दिल वालों में, कुछ सोज भी है अफसानों में
एहसासे—गमे—महरूमी लो बेदार हआ दीवानों में
इक लगजिशे—पैहम होने लगी फिकरत के हंसी इवानों में
फिर आज तुम्हें शायद छूकर यह मस्त हवाएं आई हैं।
हर जर्रए—आलम रक्सां है, मुशातिए फितरत जोश में है
इक होश की दुनियां मुजतर—सी हस्ती के दिले—बदहोश में है
थी जिसकी तमन्ना मुद्दत से जैसे कि वही आगोश में है
फिर आज तुम्हें शायद छूकर यह मस्त हवाएं आई हैं।
है चाक गरेबां — गुंच — ओ — गुल खंदां है गुलिस्तां एक तरफ
आकाश तले हैं शैखो—बरहमन खुल्दे—बदामा एक तरफ
और आलमे — सरशारी में ” हया ” है आज गजल ख्वां एक तरफ
फिर आज तुम्हें शायद छूकर यह मस्त हवाएं आई हैं।
सूत्र:
माया रंग कुसुम्म महा देखन को नीको।मीठो दिन दुई चार, अंत लागत है फीको
कोटिन जतन रह्यो नहीं, एक अंग निज मूल।
ज्यों पतंग उड़ि जायगो, ज्यों माया काफूर।।
नाम के रंग मजीठ, लगै छूटै नहिं भाई।
लचपच रह्यो समाय, सार ता में अधिकाई।।
केती बार धुलाइए, दे दे करड़ा धोए।
ज्यों ज्यों भट्ठी पर दिए, त्यों त्यों उज्ज्वल होय।।
सोवत हो केहि नींद, मूढ मूरख अग्यानी।
भोर भए परभात, अबहि तुम करो पयानी।।
अब हम सांची कहत हैं, उडियो पंख पसार।
छुटि जैहो या रुख ते, तन सरवर के पार।।
नाम झांझरी साजि, बाधि बैठो बैपारी।
बोझ लयो पाषान, मोहि हर लागै भारी।।
मांझ धार भव तखत में, आइ परैगी भीर।
एक नाम केवटिया करि ले, सोई लावै तीर।।
सौ भइया की बांह, तपै दुर्जोधन राना।
परे नरायन बीच, भूमि देते गरबाना।।
जुद्ध रचो कुरुक्षेत्र में, बानन बरसे मेह।
तिनही के अभिमान तें, गिधहुं न खायो देह।।
जोधा आगे उलट—पुलट, यह पुहमी करते।
बस नहिं रहते सोय, छिने इक में बल रहते।।
सौ जोजन मरजाद सिंध के, करते एकै फाल।
हाथन पर्वत तौलते, तिन धरि खायो काल।।
ऐसा यह संसार, रहट की जैसे घरियां।
इक रीती फिरि जाय, एक आवै फिरि भरियां।।
उपजि—उपजि विनसत करैं, फिरि जमै गिरास।
यही तमासा देखिकै, मनुवा भयो उदास।।
जैसे कलपि कलपि के, भए हैं गुड की माखी।
चाखन लागी बैठी, लपट गई दोनों पाखी।।
पंख लपेटे सिर धुनै, मन ही मन पछिताय।
वह मलयागिरि छांडि के, यहां कौन विधि आय।।
खेत बिरानो देखि, मृगा एक बन को रीझेव।
नित प्रति चुनि चुनि खाय, बान में इन दिन बीधेव।।
उचकन चाहै बल करै, मन ही मन पछिताय।
अब सो उचकि न पाइहौं, धनी पहूंचो आय।।
कल भी थीं जहनीयतें मजरूह ओहामो—गुमा
कुश्तए—ईहाम है दुनियाए इसा आज भी
कल भी था चश्मे—बसीरत पर हिजाबे—इफ्तदार
हुर्रियत की रूह है मरिहूने—जिंदा आज भी
कल भी थे जोशो—अनाके बास्ते दारो—रसन
अहले—हक के वास्ते है तेग—बुरी आज भी
सीनए—गेती से कल भी उठ रहा था इक धुआं
जर्राहाए—दहर है शोला बदामां आज भी
जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो
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