Thursday, 10 September 2015

अष्‍टावक्र:माहागीता–भाग-1(ओशो) प्रवचन–4

अष्‍टावक्र:माहागीता–भाग-1(ओशो) प्रवचन–4


अहंकार सम्हाले रखता है। यह निरहंकार रोया। अहंकार अपने को सदा नियंत्रण में रखता है। निरहंकार बहता है, उसमें बहाव है।
जे सुलगे ते बुझि गये, बुझे ते सुलगे नाहिं।
रहिमन दाहे प्रेम के, बुझि बुझि के सुलगाहिं।।
अंगारे जलते हैं—जे सुलगे ते बुझि गये—लेकिन एक घड़ी आती है, बुझ जाते हैं, फिर तुम दुबारा उन्हें नहीं जला सकते। राख को किसी ने कभी दुबारा अंगारा बनाने में सफलता पायी?
जे सुलगे ते बुझि गये, बुझे ते सुलगे नाहिं।
फिर एक दफे बुझकर वे कभी नहीं सुलगते। रहिमन दाहे प्रेम के—लेकिन जिनके हृदय में प्रेम का तीर लगा, उनका क्या कहना रहीम!
रहिमन दाहे प्रेम के, बुझि—बुझि के सुलगाहिं।
बार—बार जलते हैं! बार—बार बुझते हैं! फिर—फिर सुलग जाते हैं।
प्रेम की अग्नि शाश्वत है, सनातन है।
जिन्होंने मुझे प्रेम से सुना, वे रो पायेंगे। जिन्होंने मुझे सिर्फ बुद्धि से सुना वे कुछ निष्कर्ष, ज्ञान लेकर जायेंगे। वे राख लेकर जायेंगे—प्रेम का अंगारा नहीं। वे ऐसी राख लेकर जायेंगे जो फिर कभी नहीं सुलगेगी। याद रखना! वह बुझ गयी! वह तो मैंने तुमसे जब कही तब ही बुझ गयी। अगर तुमने बुद्धि में ली तो राख, अगर तुमने हृदय में ले ली तो अंगारा।
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लगी आग, उठे दर्द के राग दिल से
तेरे गम में आतशबया हो गये हम।
खिरद की बदौलत रहे रास्ते में
गुबारे—पसे—कारवा हो गये हम।
लगी आग, उठे दर्द के राग दिल से—वे आंसू आग लग जाने के आंसू थे।
जब किसी को रोते देखो, उसके पास बैठ जाना! वह घड़ी सत्संग की है, वह घड़ी छोड़ने जैसी नहीं। तुम नहीं रो पा रहे तो कम से कम रोते हुए व्यक्ति के पास बैठ जाना। उसका हाथ हाथ में ले लेना, शायद बीमारी तुम्हें भी लग जाये।
लगी आग, उठे दर्द के राग दिल से
आग लग जाये! ये गैरिक वस्त्र आग के प्रतीक है—ये प्रेम की आग के प्रतीक हैं।
तेरे गम में आतशबयां हो गये हम।
और जब तुम्हारे भीतर हृदय में पीड़ा उठेगी, विरह का भाव उठेगा, तुम्हारी श्वास—श्वास में जब अग्नि प्रगट होने लगेगी, आतशबया…!
तेरे गम में आतशबया हो गए हम।
खिरद की बदौलत रहे रास्ते में,
बुद्धि की बदौलत तो रास्ते में भटकते रहे!
खिरद की बदौलत रहे रास्ते में गुबारे—पसे—कारवा हो गये हम।
और बुद्धि के कारण धीरे — धीरे हमारी हालत ऐसी हो गयी, जैसे कारवां गुजरता है, उसके पीछे धूल उड़ती रहती है। हम धूल हो गए।
धूल के अतिरिक्त बुद्धि के हाथ में कभी कुछ लगा नहीं है।
खिरद की बदौलत रहे रास्ते में,
गुबारे—पसे—कारवा हो गये हम।
जो दिल अपना रोशन हुआ कृष्णमोहन
हदें मिट गयीं बेकस हो गए हम।
जो दिल अपना रोशन हुआ कृष्णमोहन—अगर प्रेम में पड़ जाये चोट, हृदय पर लग जाये चोट, खिल जाये वहां आग का अंगारा…..
जो दिल अपना रोशन हुआ कृष्णमोहन
हदें मिट गयीं बेकरा हो गए हम।
उस घड़ी फिर सीमाएं टूट जाती हैं—असीम हो जाते हैं। आंसू असीम की तरफ तुम्हारा पहला कदम है। आंसू इस बात की खबर है कि तुम पिघले, तुम्हारी सख्त सीमाएं थोड़ी पिघली, तुम थोड़े नरम हुए, तुम थोड़े गरम हुए, तुमने ठंडी बुद्धि थोड़ी छोड़ी, थोड़ी आग जली, थोड़ा ताप पैदा हुआ! ये आंसू ठंडे नहीं हैं। ये आंसू बड़े गर्म हैं। और ये आंसू तुम्हारे पिघलने की खबर लाते हैं। जैसे बरफ पिघलती है, ऐसे जब तुम्हारे भीतर की अस्मिता पिघलने लगती है तो आंसू बहते हैं।
कतीले—हवस थे तो आतशनफस थे
मुहब्बत हुई, बेजुबां हो गये हम।
जब बुद्धि से भरे थे, वासनाओं से भरे थे, विचारों से भरे थे तो लाख बातें कीं, जबान बड़ी तेज थी।
कतीले—हवस थे तो आतशनफस थे
मुहब्बत हुई, बेजुबां हो गये हम।
वे आंसू बेजुबान अवस्था की सूचनाएं हैं। जब कुछ ऐसी घटना घटती है कि कहने का उपाय नहीं रह जाता तो न रोओ तो क्या करो? जब जबान कहने में असमर्थ हो जाये तो आंखें आंसुओ से कहती हैं। जब बुद्धि कहने में असमर्थ हो जाये तो कोई नाचकर कहता है। मीरा नाची। कुछ ऐसा हुआ कि कहने को शब्द ने मिले। पद घुंघरू बाध मीरा नाची ३! रोई! जार—जार रोयी! कुछ ऐसा हो गया कि शब्दों में कहना संभव न रहा, शब्द बड़े संकीर्ण मालूम हुए। आंसू ही कह सकते थे—आंसुओ से ही कहा।
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चाहते हो अगर मुझे दिल से
फिर भला किसलिए रुलाते हो?
भक्त सदा परमात्मा से कहते रहे हैं—
चाहते हो अगर मुझे दिल से
फिर भला किसलिए रुलाते हो?
रोशनी के घने अंधेरों में
क्यों नजर से नजर चुराते हो?
पास आये न पास आकर भी
पास मुझको नहीं बुलाते हो?
किसलिए आसपास रहते हो?
किसलिए आसपास आते हो?
अगर तुमने मुझे ठीक से सुना तो तुम्हें परमात्मा बहुत बार, बहुत पास मालूम पड़ेगा।
किसलिए आसपास रहते हो?
किसलिए आसपास आते हो?
पास आये न पास आकर भी
पास मुझको नहीं बुलाते हो?
चाहते हो अगर मुझे दिल से
फिर भला किसलिए रुलाते हो?
रोशनी के घने अंधेरों में
क्यों नजर से नजर चुराते हो?
जो व्यक्ति भाव में उतर रहा है वह बिलकुल इतने करीब है परमात्मा के कि परमात्मा की आंच उसे अनुभव होने लगती है; नजर में नजर पड़ने लगती है; सीमाएं एक—दूसरे के ऊपर उतरने लगती हैं; एक—दूसरे की सीमा में अतिक्रमण होने लगता है।
यहां जो कहा जा रहा है, वह सिर्फ कहने को नहीं है; वह तुम्हें रूपांतरित करने को है। वह सिर्फ बात की बात नहीं है, वह तुम्हें संपूर्ण रूप से, जड़—मूल से बदल देने की बात है।
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एक धरती जली है घनों के लिए
प्यार पैदा हुआ तड़पनों के लिए
मित्र मांगे अगर प्राण तो गम नहीं
प्राण हमने दिये दुश्मनों के लिए।
पापियों ने तो हमको बचाया सदा
पाप हमने किए सज्जनों के लिए।
प्रश्न जब भी मिले सब मुखौटे लगा
उम्र हमको मिली उलझनों लिए।
भीड़ सपनों की हमने उगायी सदा
बंजरों के नगर निर्जनों के लिए।
किन लुटेरों की दुनियां में हम आ गए
हाथ कटते यहां कंगनों के लिए।
जिंदगी ने निचोड़ा है इतना हमें
बेच डाले नयन दर्शनों के लिए।
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चलो अब किसी और के सहारे लोगो
बड़े खुदगर्ज हो गए थे किनारे लोगो।
अब तो किनारे का भी सहारा रखना ठीक नहीं मालूम पड़ता।
चलो अब किसी और के सहारे लोगो
बड़े खुदगर्ज हो गये थे किनारे लोगो।
सहारा समझ कर खड़े हो साये में जिनके
ढह पड़ेगी अचानक वे दीवारें लोगो।
जरूर कछ करीश्‍मा हुआ है आज
खंडहर सेँ ही आ रही है झंकारें लोगो।
उम्मीद की हदें टूटी तो ताज्‍जुब नहीं
म्यान से बाहर हैं तलवारें लोगो।
क्या गुजरेगी सफीने पे, खबर नहीं
अंधड़ मिल गयी हैं पतवारें लोगो।
क्या गुसजरेगी सफीने पे खबर नहीं
अंधड़ मिल गयी हैं पतवारें लोगो।
हजारों बेबस आहें दफन हैं यहां
महज पत्थरों के ढेर नहीं हैं ये मजारें लोगो।

जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो

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