Saturday, 12 September 2015

अष्‍टावक्र: माहागीता–भाग-1 (ओशो) प्रवचन–7


मैं चाहता हूं इसलिए एक जन्म और लेना
कि मुझको उसमें शायद मिल जाए ऐसी हमदम
कि जिसको आता हो प्यार देना।
जो सुबह उठ कर मेरी तरफ मुस्कूरा के देखे
दिलोजिगर में समा के देखे
जो दोपहर को बहुत—से कामों के दरमियां
हो उदास मुझ बिन
गुजार दे इंतजार में दिन
जो शाम को यूं करे स्वागत
तमाम चाहत तमाम राहत से राम कर ले
जन्म मरण से रिहाई दे कर
मुझे रहीने—दवाम कर ले!
एक ऐसी हमदम की आरजू है
जो मेरे सुख को
वफा की ज्योति का संग दे दे
मेरे दुख को भी
अपने गर्म आंसुओ के मोतियों का रंग दे दे
जो घर में इफ्तास का समय हो, न तिलमिलाए
सफर कठिन हो तो उसके माथे पे बल न आए
एक ऐसी हमदम मिलेगी अगले जन्म में शायद
कि जिसको आता हो प्यार देना
मैं चाहता हूं इसलिए एक जन्म और लेना।
जो नहीं मिला है—किसी को प्रेयसी नहीं मिली है, किसी को धन नहीं मिला है, किसी को पद नहीं मिला है, किसी को प्रतिष्ठा नहीं मिली है—तों हम और जन्म लेना चाहते हैं। अनंत जन्म हम ले चुके हैं, लेकिन कुछ न कुछ कमी रह जाती है, कुछ न कुछ खाली रह जाता है, कुछ न कुछ ओछा रह जाता है—उसके लिए अगला जन्म, और अगला जन्म।
वासनाओं का कोई अंत नहीं है। जरूरतें बहुत थोड़ी हैं, कामनाओं की कोई सीमा नहीं है। उन्हीं कामनाओं के सहारे आदमी जीता चला जाता है।


रात मैं जागा
अंधकार की सिरकी के पीछे से मुझे लगा
मैं सहसा सुन पाया सन्नाटे की कनबतिया
धीमी रहस्य—सुरीली, परम गीत में
और गीत वह मुझसे बोला
दुर्निवार! अरे तुम अभी तक नहीं जागे?
और यह मुक्त स्रोत—सा
सभी ओर बह चला उजाला
अरे, अभागे कितनी बार भरा
अनदेखे, छलक—छलक बह गया तुम्हारा प्याला!
तुम पहली दफे नहीं सुन रहे हो इन वचनों को; बहुत बार सुन चुके हो। तुम अति प्राचीन हो। हो सकता है, अष्टावक्र से भी तुमने सुना हो। तुम में से कुछ ने तो निश्चित सुना होगा। कुछ ने बुद्ध से सुना हो, कुछ ने कृष्ण से, कुछ ने क्राइस्ट से, कुछ ने मुहम्मद से, किसी ने लाओत्सु से, जरथुस्त्र से। पृथ्वी पर इतने अनंत पुरुष हुए हैं, उन सबको तुम पार करके आते गए हो। इतने दीये जले हैं, असंभव है कि किसी दीये की रोशनी तुम्हारी आंखों में न पड़ी हो। तुम्हारा प्याला बहुत बार भरा गया है।
अरे अभागे! कितनी बार भरा
अनदेखे, छलक—छलक बह गया तुम्हारा प्याला!
तुम्हारा प्याला भर भी दिया जाता है तो भी खाली रह जाता है। तुम उसे संभाल नहीं पाते। और गीत वह मुझसे बोला
दुर्निवार! अरे, तुम अभी तक नहीं जागे?
और यह मुका स्रोत—सा
सभी ओर बह चला उजाला।
सुबह होने लगी। और बहुत बार सुबह हुई है, और बहुत बार सूरज निकला, पर तुम हो कि अपने अंधेरे को पकड़े बैठे हो। यह अभागापन तुम छोड़ोगे तो छूटेगा।

जो इन्सां त्यागी, यानी संन्यासी है
वेदों से भी है बलातर
उसकी जगमग जग से बढ़कर
वह बसता है जगदीश्वर में
उसमें बसता है जगदीश्वर!
वेद यह कहते हैं
जो इन्सां त्यागी, यानी संन्यासी है
वेदों से भी है बलातर
वेदों से भी श्रेष्ठ है। क्योंकि :
उसमें बसता है जगदीश्वर
वह बसता है जगदीश्वर में!



जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो

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