Saturday, 12 September 2015

अष्‍टावक्र: माहागीता–भाग-1(ओशो) प्रवचन–6


वासना को बांधने को
तूमड़ी जो स्वरतार बिछाती है।
आह! उसी में कैसी एकांत—निबिड़
वासना थरथराती है!
फिर सुनो—
वासना को बौधने को
तूमड़ी जो स्वरतार बिछाती है।
आह! उसी में कैसी ख्यात—निबिड़
वासना थरथराती है!
तभी तो सांप की कुंडली हिलती नहीं,
फन डोलता है।
तुम वासना से मुक्त भी होना चाहते हो, तो भी तुम वासना का ही जाल बिछाते हो। तुम परम शुद्ध—बुद्ध होना चाहते हो, तो भी लोभ के माध्यम से ही, तो भी वासना ही थरथराती है।
आह! उसी में कैसी एकांत—निबिड़
वासना थरथराती है।
वासना को बांधने को
तूमडी जो स्वरतार बिछाती है।
तुम परमात्मा को पाने चलते हो, लेकिन तुम्हारे पाने का ढंग वही है जो धन पाने वाले का होता है। तुम परमात्मा को पाने चलते हो, लेकिन तुम्हारी वासना, कामना वही है—जो पदार्थ को पाने वाले की होती है। संसार को पाने वाले की जो दीवानगी होती है, वही दीवानगी तुम्हारी है।
वासना विषय बदल लेती है, वासना नहीं बदलती।
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मंदिर के भीतर वे सब धुले—पुंछे
उघडे, अवलिप्त, खुले गले से,
मुखर स्वरों में, अति प्रगल्म
गाते जाते थे राम—नाम।
भीतर सब गंगे, बहरे, अर्थहीन
जलपक, निबोंध, अयाने, नाटे
पर बाहर,
जितने बच्चे, उतने ही बड़बोले!
मंदिरों में देखो!
मंदिर के भीतर वे सब धुले—पुंछे,
उघडे, अवलिप्त..!
कैसे लोग निर्दोष मालूम पड़ते हैं मंदिर में। उन्हीं शक्लों को बाजार में देखो, उन्हीं को मंदिर में देखो। मंदिर में उनका आवरण भिन्न मालूम होता है।
खुले गले से, मुखर स्वरों में
अति प्रगल्म, गाते जाते थे राम—नाम।
देखा तुमने माला लिए, किसी को राम—नाम जपते न: राम चदरिया ओढ़े, चंदन—तिलक लगाए— कैसी शुभ्र लगती है प्रतिमा! इन्हीं सज्जन को बाजार में देखो, भीड़— भाड़ में देखो, पहचान भी न पाओगे। लोगों के चेहरे अलग— अलग हैं; बाजार में एक चेहरा ओढ़ लेते हैं, मंदिर में एक चेहरा ओढ़ लेते हैं।
अति प्रगल्म, गाते जाते थे राम—नाम
भीतर सब गुंगे, बहरे, अर्थहीन
जलपक, निबोंध, अयाने, नाटे,
पर बाहर,
जितने बच्चे उतने ही बड़बोले!
जानकारी तुम्हें तोता बना सकती है, बड़बोला बना सकती है। जानकारी तुम्हें धार्मिक होने की भ्रांति दे सकती है, धोखा दे सकती है। लेकिन ज्ञान उसे मत मान लेना। और जानकारी के आधार पर तुम जो निष्ठा सम्हालोगे, वह निष्ठा संदेह के ऊपर बैठी होगी, संदेह के कंधे पर सवार होगी। वह निष्ठा कहीं सत्य के द्वार तक ले जाने वाली नहीं है। उस निष्ठा पर बहुत भरोसा मत करना। वह निष्ठा दो कौड़ी की है।
निष्ठा आनी चाहिए स्वानुभव से। निष्ठा आनी चाहिए शुद्ध निर्विकार स्वयं की ध्यान—अवस्था से।
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ऊपर ही ऊपर,
जो हवा ने गाया
देवदारू ने दोहराया
जो हिम—चोटियों पर झलका
जो सांझ के आकाश से छलका
वह किसने पाया?
जिसने आयत करने की आकांक्षा का हाथ बढ़ाया?
आह, वह तो मेरे
दे दिए गए हृदय में उतरा
मेरे स्वीकारे आंसू में ढलका
वह अनजाना, अनपहचाना ही आया
वह इन सबके और मेरे माध्यम से
अपने में, अपने को लाया
अपने में समाया
अकेला वह तेजोमय है जहां
दीठ बेबस झुक जाती है
वाणी तो क्या, सन्नाटे तक की गंज
वहां चुक जाती है।
सुनो मुझे—गहन आसुओं से! सुनो मुझे—हृदय से! सुनो मुझे—प्रेम से! बुद्धि से नहीं, तर्क से नहीं। वही श्रद्धा और निष्ठा का अर्थ है।
ऊपर ही ऊपर,
जो हवा ने गाया
जो देवदारू ने दोहराया
जो हिम—चोटियों पर झलका
जो सांझ के आकाश से छलका
वह किसने पाया?
क्या उसने, जिसने
आयत करने की आकांक्षा का हाथ बढ़ाया?
नहीं! जहां आकांक्षा का हाथ बढ़ा, वहा तो हाथ बड़ा छोटा हो गया। आकांक्षा के हाथ में तो भिक्षा ही समाती है, साम्राज्य नहीं समाते। साम्राज्य समाने के लिए तो प्रेम से खुला हुआ हृदय चाहिए; भिक्षा का, वासना का पात्र नहीं।
वह किसने पाया?
जिसने आयत करने की आकांक्षा का हाथ बढ़ाया?
तो तुम मुझे यहां ऐसे सुन सकते हो कि चलो, जो अपने मतलब का हो उसे उठा लें, अपनी झोली में सम्हाल लें। तो तुम आकांक्षा के हाथ से मेरे पास आ रहे हो। आकांक्षा तो भिक्षु है। तो तुम कुछ थोड़ा—बहुत ले जाओगे, लेकिन तुम जो ले जाओगे वे टेबल से गिरे रोटी के टुकड़े इत्यादि थे। तुम अतिथि न हो पाए। संन्यास तुम्हें अतिथि बना देता है।
आह, वह तो मेरे दे दिए गए
हृदय में उतरा!
आह, वह तो मेरे दे दिए गए
हृदय में उतरा।
मेरे स्वीकारे आंसू में ढलका
वह अनजाना—अनपहचाना ही आया
वह इन सबके और मेरे माध्यम से
अपने में, अपने को लाया
अपने मैं समाया
अकेला वह तेजोमय है जहां
दीठ बेबस झुक जाती है।
वहां आंख तो झुक जाती है।
वाणी तो क्या, सन्नाटे तक की गज
वहां चुक जाती है
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आदमी की हयात कुछ भी नहीं
बात यह है कि बात कुछ भी नहीं।
तूने सब कुछ दिया है इन्सां को
फिर भी इन्सां की जात कुछ भी नहीं।
इस्तिराबे —दिलो —जिगर के सिवा
शौक की वारिदात कुछ भी नहीं।
हुस्न की कायनात सब कुछ है
इश्क की कायनात कुछ भी नहीं।
आदमी पैरहन बदलता है।
यह हयातो—मयात कुछ भी नहीं।
आदमी सिर्फ कपड़े बदलता है। न तो जिंदगी कुछ है, न मौत कुछ है।
आदमी पैरहन बदलता है।
यह हयातो—मयात कुछ भी नहीं।
आदमी की हयात कुछ भी नहीं
बात यह है कि बात कुछ भी नहीं।
इतना तुम्हें समझ मैं आ जाए कि तुम बेबात की बात हो, कि तुम्हें सब समझ में आ गया।
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भीतर उतरो। शरीर के पार, मन के पार, भाव के पार—भीतर उतरो!
जान सके न जीवन भर हम
ममता कैसी, प्यार कहां
और पुष्प कहां पर महका करता?
जान सके न जीवन भर हम
ममता कैसी, प्यार कहां
और पुष्प कहा पर महका करता?
गंध तो आती मालूम होती है—कहां से आती है? जीवन है, इसकी छाया तो पड़ती है; पर इसका मूल कहां है? प्रतिबिंब तो झलकता है, लेकिन मूल कहां? प्रतिध्वनि तो गूंजती है पाहाड़ों पर, लेकिन मूल ध्वनि कहां है?
जान सके न जीवन भर हम
ममता कैसी, प्यार कहां
और पुष्प कही पर महका करता?
मिली दुलारी आहों की
और हास मिला है शूलों का
जान सके न जीवन भर हम
सौरभ कैसा, पराग कहा
और मेघ कहा पर बरसा करता?
पर मेघ बरस रहा है—तुम्हारे ही गहनतम अंतस्तल में। फूल महक रहा है—तुम्हारे ही गहन अंतस्तल में। कस्‍तुरी कुंडल बसै! यह जो महक तुम्हें घेर रही है और प्रश्न बन गई है—कहा से आती है? यह महक तुम्हारी है, यह किसी और की नहीं। इसे अगर तुमने बाहर देखा तो मृग—मरीचिका बनती है, माया का जाल फैलता है, जन्मों—जन्मों की यात्रा चलती है। जिस दिन तुमने इसे भीतर झांक कर देखा उसी दिन मंदिर के द्वार खुल गए। उसी दिन पहुंच गए अपने सुरभि के केंद्र पर। वहां है प्रेम, वहीं है प्रभु!
मन उलझाए रखता है बाहर। मन कहता है चलेंगे भीतर, लेकिन अभी थोड़ा देर और।
किसी कामना के सहारे
नदी के किनारे बड़ी देर से
मौन धारे खड़ा हूं अकेला।
सुहानी है गोधूलि—बेला
लगा है उमंगों का मेला।
यह गोधूलि—बेला का हलका धुंधलका
मेरी सोच पर छा रहा है।
मैं यह सोचता हूं?
मेरी सोच की शाम भी हो चली है।
बड़ी बेकली है।
मगर जिंदगी में
निराशा में भी एक आशा पली है
मचल ले अभी कुछ देर और ऐं दिल!
सुहाने धुंधलके से हंस कर गले मिल
अभी रात आने में काफी समय है!
मन समझाए चला जाता है; थोड़ी देर और, थोड़ी देर और—भुला लो अपने को सपनों में; थोड़ी देर और दौड़ लो मृग—मरीचिकाओं के पीछे। बड़े सुंदर सपने हैं! और फिर अभी मौत आने में तो बहुत देर है।
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एक चिकना मौन
जिसमें मुखर, तपती वासनाएं
दाहक होतीं, लीन होती हैं।
उसी में रवहीन तेरा गूंजता है छंद
ऋत विज्ञप्त होता है!
एक चिकना मौन
जिसमें मुखर, तपती वासनाएं
दाहक होतीं, लीन होती हैं।
नहीं, भीतर एक मौन, एक शाति, जिसमें सारी वासनाओं का ताप धीरे—धीरे खो जाता और शांत हो जाता है। उसी में रवहीन तेरा गूंजता है छंद—फिर कोई स्वर सुनाई नहीं देते, सिर्फ छंद गूंजता है—शब्दहीन, स्वरहीन छंद। शुद्ध छंद गूंजता है।
उसी में रवहीन तेरा गूंजता है छंद
ऋत विज्ञप्त होता है!
वहीं जीवन का सत्य प्रगट होता है—ऋत विज्ञप्त होता है।
एक काले घोल की—सी रात
जिसमें रूप, प्रतिमा, मूर्तियां
सब पिघल जातीं, ओट पातीं
एक स्वप्नातीत रूपातीत पुनीत गहरी नींद की
उसी में से तू बढ़ा कर हाथ
सहसा खींच लेता है, गले मिलता है!
छिपा है परमात्मा तुम्हारे ही भीतर। उतरो थोड़ा। छोड़ो मूर्तियों को, विचारों को, प्रतिमाओं को, धारणाओं को—मन के बुलबुले! थोड़े गहरे उतरो! जहां लहरें नहीं, जहां शब्द नहीं—जहां मौन है। जहां परम मौन मुखर है! जहां केवल मौन ही गूंजता है!
उसी में रवहीन तेरा गूंजता है छंद
ऋत विज्ञप्त होता है।
उतरो वहां!
उसी में से तू बढ़ा कर हाथ
सहसा खींच लेता है, गले मिलता है।
वहीं है मिलन!
तुम जिसे खोजते हो, तुम्हारे भीतर छिपा है। तुम जिस प्रश्न की तलाश कर रहे हो, उसका उत्तर तुम्हारे भीतर छिपा है। जागो! इसी क्षण भोगो उसे! अष्टावक्र के सारे सूत्र एक ही खबर देते हैं. पाना नहीं है उसे, पाया ही हुआ है। जागो और भोगो!
हरि ओंम तत्सत्!
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 जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो

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