वही है मरकजे —काबा
वही है राहे
—बुतखाना?
जहां दीवाने दो
मिलकर
सनम की बात करते
हैं
--------------------------------------------------------------------------------------------------------
एक तरफ दर्दीला
मातम एक तरफ त्यौहार है
विधना के बस इसी
खेल में यह मिट्टी लाचार है
एक तरफ वीरान
सिसकता एक तरफ अमराइयां
एक तरफ अर्थी
उठती है एक तरफ शहनाइयां
एक तरफ कंगन झड़ते
हैं एक तरफ सिंगार है
विधना के बस इसी
खेल में यह मिट्टी लाचार है
लुटता कभी पराग
पवन में कहीं चिता की राख है
किरण जादुई खड़ी
कहीं पर कहीं वितप्त सलाख है
एक तरफ है फूल
सेज पर एक तरफ अंगार है
विधना के बस इसी
खेल में यह मिट्टी लाचार है
ऋण पर है
अस्तित्व हमारा उम्र सूद में जा रही
जब सब हिसाब देना
होगा घड़ी निकट वह आ रही
हाय हमारी देह
सांस क्या सब का सभी उधार है
विधना के बस इसी
खेल में यह मिट्टी लाचार है
दुख ही दुख
ज्यादा है जग में सुख के क्षण तो अल्प हैं
सौ आंसू पर एक
हंसी यह विधना का संकल्प है
उस अनजान खिलाड़ी
का तो बहुत निठुर खिलवार है
विधना के बस इसी
खेल में यह मिट्टी लाचार है
--------------------------------------------------------------------------------------------------------
एक ही बच रहता
है। इसलिए ज्ञान के, द्वैत के सब संबंध विलीन हो जाते
हैं।
झुका हर माथ है
तब तक
तुम्हारा साथ है
जब तक
सिद्धि हो तुम
शक्ति भी हो
त्याग भी आसक्ति
भी हो
वंदना हो वंद्य
भी हो
गीत हो तुम गद्य
भी हो
अभय हूं सीस पर
मेरे
तुम्हारा हाथ है
जब तक
गान हो तुम गेय
भी हो
प्राण हो तुम
प्रेय भी हो
सिद्धि हो तुम
साधना भी
ज्ञान हो तुम
ज्ञेय भी हो
राग हो तुम
रागिनी भी
दिवस हो तुम
यामिनी भी
क्यों ड़रूं मैं
घन तिमिर से
कृपा का प्रात है
जब तक
ध्यान हो
ध्यातव्य भी हो
कर्म हो कर्तव्य
भी हो
तुम्हीं में सब
समाहित है
चरण हो गंतव्य भी
हो
दान हो तुम याचना
भी
तृप्ति हो तुम
कामना भी
अमर बन कर रहूंगा
मैं
तुम्हारा गात है
जब तक
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
न घर मेरा न घर
तेरा
दुनिया तो बस रैन
बसेरा
कभी एक सी दशा न
रहती
पुरवा बनकर पछुवा
बहती
ऋतुएं आती जाती
रहती
देह मेह शीतातप
सहती
कहीं धूप तो कहीं
छाह है
श्वास पथिक की
कठिन राह है
मंजिल सिर्फ उसे
ही मिलती
जो तिर जाता अगम
अंधेरा
न घर मेरा न घर
तेरा
दुनिया तो बस रैन
बसेरा
हानि—लाभ सुख—दुख
परिमित है
विजय—पराजय भी
सीमित है
यश— अपयश विधि के
हाथों में
जीवन—मरण सभी
निश्चित है
वही बनाता वही
मिटाता
वही बढ़ाता वही
घटाता
रीती रेखा में
गति भरता
बड़ा कुशल है
सृष्टि चितेरा
मंजिल सिर्फ उसे
ही मिलती
जो तिर जाता अगम
अंधेरा
न घर मेरा न घर
तेरा
दुनिया तो बस रैन
बसेरा
---------------------------------------------------------------------------------------------------------------
वही है मरकजे
—काबा वही है राहे —बुतखाना
जहां दीवाने दो
मिलकर सनम की बात करते हैं
इन दो दीवानों की
बात तुमने सुनी। प्रभु करे तुम्हें भी दीवाना बनाये, तुम्हारे जीवन में भी वह अपूर्व अमृत बरसे। और देर जरा भी नहीं है, बस स्मृति की बात है।
हरि —ओंम तत्सत्।
आज इतना ही।
(अष्टावक्र: गीता—समप्त)
जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो
No comments:
Post a Comment