अष्टावक्र:
महागीता–(भाग–6) प्रवचन–15
मसलक जो अलग —
अलग नजर आते हैं
यह देखकर राहगीर
घबराते हैं
रास्ते का फकत
फेर है राहरौ आखिर
मंजिल पे पहुंचते
हैं तो मिल जाते हैं
रास्ते के ही
फर्क हैं। जब यात्री मंजिल पर पहुंचते हैं तो सब रास्ते मिल जाते हैं।
रास्ते का फकत
फेर है राहरौ आखिर
मंजिल पे पहुंचते
हैं तो मिल जाते हैं
मसलक जो अलग— अलग
नजर आते हैं
यह देखकर राहगीर
घबराते हैं
दीप नहीं, स्नेह सदा जलता है
मिट्टी के सीस
साज
सौरभ आलोक छत्र
गूंथ हृदय हार
मध्य
किरन कुसुम
ज्योति पत्र
वृक्ष नहीं, बीज फलता है
दीप नहीं, स्नेह सदा जलता है
जन्म —मरण दो डग
धर
नाप सकल भुवन लोक
पथ का पाथेय लिये
नयन द्वय हर्ष
—शोक
रूप नहीं, रे अरूप चलता है
दीप नहीं, स्नेह सदा जलता है
क्या कभी तुम जान
पाए जीत क्या है हार क्या है
इस जरा—सी जिंदगी
में जिंदगी का सार क्या है
मिल गये जीवन डगर
पर मनचले अनजान साथी
दे दिया अंतर
उन्हीं को बन गये वे पूज्य पाथी
प्रीति कर ली पर
न जाना प्रीति का आधार क्या है
क्या कभी तुम जान
पाए जीत क्या है हार क्या है
भूल निज मंजिल
गये तुम पग उन्हीं के संग बढ़ाए
और उनकी अर्चना
में रात—दिन तूने लगाए
स्नेह की सौगात
सारी उन सभी ने लूट खायी
प्यार का देकर
भुलावा राह भी तेरी भुलायी
स्वप्न तक में यह
न सोचा शांति का आगार क्या है
क्या कभी तुम जान
पाए जीत क्या है हार क्या है
प्रीति कर ली पर
न जाना प्रीति का आधार क्या है
जबसे तुमसे प्यार
हुआ है
दुश्मन सब संसार हुआ
है
गली—गली देती है
गाली
हर वातायन
व्यंग्य सुनाता
हर कोई अब पथ पर
चलते
अंगुली से मुझको
दिखलाता
मुझको अपराधी
ठहराया
प्रीति—रतन का
चोर बताया
मेरे अपनों का भी
मुझसे
बदला—सा व्यवहार
हुआ है
जबसे तुमसे प्यार
हुआ है
दुश्मन सब संसार
हुआ है
ऐसी खबर सुनी है
जबसे
सारा मधुबन रूठ
गया है
मुंह बोले का
नाता था कुछ
अब तो वह भी टूट
गया है
डाली—डाली मुझे
चिढ़ाती
क्यारी —क्यारी
धूल उडाती
कली—कली काटा बन
बैठी
फूल —फूल अंगार
हुआ है
मेरे अपनों का भी
मुझसे
बदला—सा व्यवहार
हुआ है
जबसे तुमसे प्यार
हुआ है
दुश्मन सब संसार
हुआ है
अगर अकेला होता
मैं तो
शायद कुछ पहले आ
जाता
लेकिन पीछे लगा
हुआ था
संबंधों का लंबा
तांता
कुछ तो थी जंजीर
पांव की
कुछ थी कठिन चढ़ाई
मग की
कुछ रोके था तन
का रिश्ता
कुछ टोके था मन
का नाता
इसीलिए हो गयी
देर
कर देना माफ
विवशता मेरी
धरती सारी मर
जाएगी
अगर क्षमा निष्काम
हो गयी
मैंने तो सोचा था
अपनी
सारी उमर तुझे दे
दूंगा
इतनी दूर मगर थी
मंजिल
चलते चलते शाम हो
गयी
भौंहों पर खिंचने
दो रतनारे बान
अभी और अभी और।
सुर— धन को सरसा
ओ आंचल के देश
सपनों को बरसा ओ
नभ के परिवेश
संयम से मत बांधो
दर्शन के प्राण
अभी चलने दो दौर!
अभी और अभी और।
कन—कन को महका ओ
माटी के गीत
जीवन को दहका ओं
सुमनों के मीत
अधरों को करने दो
छक कर मधुपान
कहीं सौरभ के
ठौर!
अभी और अभी और।
तन—मन को पुकार
उगे रागों के छोर
प्रीति कलश ढुलका
ओ वंशी के पोर
कुंजों में छिड़ने
दो भ्रमरों की तान
धरो स्वर के सिर
मौर!
अभी और अभी और!
भौंहों पर खिंचने
दो रतनारे बान
अभी और अभी और!
कूल बैठ
नद समीप
बटोर मत
शंख—सीप
तुमने खूब
शंख—सीप बटोर लिये हैं। अब जरा बैठो।
कूल बैठ
अब किनारे बैठ
जाओ।
नद समीप
यह जो संसार की
बहती हुई धारा है, इसके किनारे बैठ रहो। बटोर मत
शंख—सीप
अब बहुत बटोर लिए
शंख—सीप, अब जरा किनारे बैठ रहो—कूटस्थ हो
जाओ। साक्षी बनो।
योग
आत्म—संभोग।
भोग
देह—संभोग।
अब थोड़ा अपना
भोग करो। अब थोड़ा अपना स्वाद लो। दूसरों का स्वाद लेते खूब भटके तिक्त हुआ
मुंह, कडुवाहट से भर गया। अब थोड़ी रसधार
बहने दो। अपने प्राणों के गीत को गूंजने दो, उठने दो यह स्वयं का छंद। थोड़ा—सा अगर तुम भीतर की तरफ चल पड़ो, एक किरण पकड़ लो होश की तो सूरज तक पहुंच जाओ।
माटी
बीज उगाती
परिपाटी दोहराती
माटी बीज बनाती।
प्रभु का पद पा
जाती।
बसदो ही तरह के
लोग है, दूनिया में।एक परिपाटी दोहराने वाले।
माटी
बीज उगाती
परिपाटी दोहराती
माटी
बीज बनाती
प्रभु का पर पा
जाती।
तुम कब तक
दोहराते रहोगे यह जड़ यंत्रवत जीवन? कुछ बनाओ, कुछ सृजन करो। और एक ही चीज सबसे
पहले सृजन करने की है और वह है स्वयं के सृजन की। और वहां सृजन जैसा भी क्या है, पर्दा हटाना।
आत्म–सृजन का
अर्थ इतना ही होता है—आत्म—आविष्कार। अपने को उघाड़ लेना है।
और तुम थोड़े
भीतर चलो तो तुम अचानक पाओगे कि परमात्मा हजार—हजार कदमों से तुम्हारी तरफ चल
पडा। तुम एक कदम उठाओ, वह हजार कदम उठाता है। तुम्हें
थोड़े उसे खोजना है। वह भी तुम्हें खोज रहा है।
मेरा तो जीवन
मरूथल है
जब तुम आओ तो
सावन है
ऐसा रूठा मधुमास
कि फिर
आने का नाम नहीं
लेता
ऐसा भटका है
प्यासा मन
क्षण भर विश्राम
नहीं लेता
मेरा तो लक्ष्य
अदेखा है
तुम साथ चलो तो
दर्शन हो
अब तुम न
तुम्हारी आहट कुछ
शकुनों की घड़ियां
बीत चलीं
त्यौहार प्रणय का
सूना है
फुलझड़ियां हैं सब
रीत चली
मेरा तो यज्ञ
अधूरा है
तुम साथ रहो तो
पूजन हो
उलझी अलकें भीगी
पलकें
हो बैठा है परिचय
मेरा
शंका से देख रहा
है जग
क्षण — क्षण जीवन
अभिनय
मेरा मेरी तो
साधें शापित हैं
जब तुम छू दो तो
पावन हो
जब तुम वीणा के
तार कसो
यह गायक मन
गंधर्व बने
तुम ही यदि साथ
रहो तो फिर
हर पल जीवन का
पर्व बने
हर आह मधुरतम
गायन हो
हर आंसू फिर मधु
का कण हो
दो हाथ में हाथ
परमात्मा के, वह तुम्हारे भीतर तैयार है। अपनी
वीणा उसको सौंप दो। यही अष्टावक्र का समग्र संदेश है। साक्षी बन रहो, कर्ता नहीं, भोक्ता नहीं। और जो परमात्मा करना
चाहता है, तुम निमित्तमात्र हो जाओ। होने दो, तुम हवा के झोंके हो जाओ, कि सूखे पत्ते, जहां ले जाए, चल पड़ो।
जब तुम वीणा के
तार कसो
यह गायक मन
गंधर्व बने
तुम ही यदि साथ
रहो तो फिर
हर पल जीवन का
पर्व बने
हर आह मधुरतम
गायन हो
हर आंसू फिर मधु
का कण हो
मेरी तो साधें
शापित हैं
जब तुम छू दो तो
पावन हो
मेरा तो यज्ञ
अधूरा है
तुम साथ रहो तो
पूजन हो
मेरा तो लक्ष्य
अदेखा है
तुम साथ चलो तो
दर्शन हो
मेरा तो जीवन
मरुथल है
जब तुम आओ तो
सावन हो
यह हो सकता है।
यह अभी हो सकता है। श्रवणमात्रेण।
हरि ओंम तत्सत्!
आज इतना ही।
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