Thursday, 5 November 2015

अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग–6) प्रवचन–14

श्रु से मेरी नहीं पहचान थी कुछ
दर्द से परिचय तुम्हीं ने तो कराया
छू दिया तुमने हृदय की धड़कनों को
गीत का अंकुर तुम्हीं ने तो उगाया
मूक मन को स्वर दिये हैं बस तुम्हीं ने
उम्र भर एहसान भूलूंगा नहीं मैं
मैं न पाता सीख यह भाषा नयन की
तुम न मिलते उम्र मेरी व्यर्थ होती
सांस ढोती शव विवश अपना स्वयं ही
और मेरी जिंदगी किस अर्थ होती
प्राण को विश्वास सौंपा बस तुम्हीं ने
उम्र भर एहसान भूलूंगा नहीं मैं
तुम मिले हो क्या मुझे साथी सफर में
राह से कुछ मोह जैसा हो गया है
एक सूनापन कि जो मन को डसे था
राह में गिरकर कहीं वह खो गया है
शोक को उत्सव किया है बस तुम्हीं ने
उम्र भर एहसान भूलूंगा नहीं मैं
यह हृदय पाहन बना रहता सदा ही
सच कहूं यदि जिंदगी में तुम न मिलते
यूं न फिर मधुमास मेरा मित्र होता
और अधरों पर न यह फिर फूल खिलते
भग्न मंदिर फिर बनाया बस तुम्हीं ने
उम्र भर एहसान भूलूंगा नहीं मैं
तीर्थ सा मन कर दिया है बस तुम्हीं ने
उम्र भर एहसान भूलूंगा नहीं मैं
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जीव भर का सुबरन
देकर भी करता मन
दे दूं कुछ और अभी
तन अंगीकार करो
मन—धन स्वीकार करो
लोभ—मोह—भ्रम लेकर
प्राण निर्विकार करो
प्रति पल प्रति याम दूं
सवेरे दूं शाम दूं
जब तक पूजा—प्रसमन
देकर भी करता मन
दे दूं कुछ और अभी
भक्ति—भाव अर्जन लो
शक्ति साध सर्जन लो
अर्पित है अंतर्तम
अहं का विसर्जन लो
जन्म लो मरण ले लो
स्वप्न—जागरण ले लो
चिर संचित श्रम साधन
देकर भी करता मन
दे दूं कुछ और अभी
यह नाम तुम्हारा हो
धन— धाम तुम्हारा हो
मात्र कर्म मेरे हों
परिणाम तुम्हारा हो
उंगलियां सुमरनी हों
सांसें अनुसरणी हों
शाश्वत स्वर आत्म—सुमन
देकर भी करता मन
दे दूं कुछ और अभी

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सिद्ध कौन?
जो असंग
वह अभंग
जो अकेला है, जो इतना अकेला है कि अब अकेलापन भी न बचा, उसी को कहते असंग। और जो असंग है, वह अभंग है। उसका अब खंड़न नहीं हो सकता है। उसके अब टुकड़े नहीं हो सकते हैं। मैं, तू यह, वह, सब टुकड़े समाप्त हो गये।
जो असंग
वह अभंग
और ऐसी अभंग दशा को सिद्ध कहा है।
महाराष्ट्र में सिद्धों के वचन, बहुत से वचन अभंग कहलाते हैं। वे इसीलिए अभंग कहलाते हैं। वे एक ऐसी चित्त की दशा से पैदा हुए हैं जहां कोई विभाजन नहीं रहा। अंग्रेजी में जो शब्द है इनडिवीजुअल, वह ठीक शब्द है अभंग के लिए। इनडिवीजुअल का अर्थ होता है, जिसके विभाजन न हो सकें। अविभाज्य जो है, खंड़ न हो सकें। जिसके खंड़ हो जाएं, वह भीड़, वह अभी व्यक्ति नहीं। सिद्धि की जो परमदशा है, वह अभंग होने की दशा है। अद्वय, दो नहीं बचे, इतना भी खंड़ नहीं
रहा कि दो बचें। अनेक की तो बात ही छोड़ दो, दो भी नहीं बचे।
अपना
अपने में बो
अंत: जग
बाहर सो
सिद्ध की यह दशा है।
अपना
अपने में बो
अब कोई दूसरा तो है नहीं।
अपना
अपने में बो
खुद ही बीज है, खुद ही खेत है, खुद ही किसान है, खुद ही फसल है, खुद ही काटेगा। बस अपना ही अपना बचा।
अपना
अपने में बो
अंत: जग
बाहर सो
और जो भीतर है, वही अब बाहर है। जो बाहर है, वही भीतर है। बाहर भीतर भी गया। अभंग। अब न कुछ बाहर है, न भीतर है।
नियति निरपेक्ष है
भ्रम है विरोधाभास
तम—विभा द्वय से
मुक्त है महाकाश
नियति निरपेक्ष है
तो जब तक सापेक्ष हो —ठंडा और गरम, सुख और दुख ये सब सापेक्ष बातें हैं। जो तुम्हें सुख है, दूसरे को दुख हो सकता है।
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भ्रम है विरोधाभास
नियति निरपेक्ष है
तम —विभा द्वय से
और अंधेरे और प्रकाश के द्वंद्व से—
मुक्त है महाकाश
वह जो सिद्ध का महाकाश है, वह द्वंद्व से मुक्त है।
स्वस्वरूपेउहमद्वये—वहां कोई दो नहीं है।
जो दे व्यर्थ को अर्थ
वही सिद्ध वही समर्थ
तुम तो अभी अर्थ को भी —व्यर्थ किये दे रहे हो। अर्थ का भी अनर्थ किये दे रहे हो। इतना बहुमूल्य जीवन मिला है और ऐसा गंवा रहे हो। ऐसा बहुमूल्य रतन—सा जीवन मिला है, कौड़ियों में लुटा रहे हो। तुम तो अभी अर्थ का अनर्थ किये दे रहे हो।
जो दे व्यर्थ को अर्थ
वही सिद्ध वही समर्थ

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दिन भर दौड़ी
मांगा मोती
लायी कौड़ी
तुम्हारा जीवन ऐसा है
लहर निगोड़ी
दिन भर दौड़ी
मांगा मोती
लायी कौड़ी
दौड़ते तो जिंदगी भर हो, दिन बीत जाता है दौड़ते —दौड़ते, लाते क्या हो? सांझ घर क्या लाते हो? कौड़िया लिये चले आते हो। उदास, थके, आसुओ के सिवाय तुम्हारे जीवन की कोई फलश्रुति नहीं है। सिद्ध वही जो इसी क्षण, यहीं हीरा ले आया। इसी क्षण डुबकी लगायी और मोती ले आया। अभी और यहीं जिसने अपने सुख, परम, महासुख को उदघोषित कर दिया।
लेकिन तुम्हें कठिनाई होती है, तुम तो इस आनंद की खबर को सुनकर भी बेचैन होने लगते हो। क्यों?
मैं नियति के व्यंग्य से घायल हुआ हूं
और तुमको गीत गाने की लगी है!
तुम तो सिद्धों से नाराज हुए हो। तुम तो बुद्धों से नाराज हुए हो। तुमने तो उनसे जा—जाकर
बार—बार कहा —
मैं नियति के व्यंग्य से घायल हुआ हूं
और तुमको गीत गाने की लगी है!
इस तरह की चोट कुछ मन पर हुई है
घाव गहरा, खून पर बहता नहीं है
मन बहुत समझा रहा, आघात सह जा
किंतु तन कमजोर यह सहता नहीं है
बिजलियों ने वक्ष मेरा छू लिया है
और तुमको मुस्कुराने की लगी है!
कर्म की पूजा अधूरी ही पड़ी है
और तुमको रस बहाने की लगी है!
द्वार की सांकल बजाए जा रहा दुख
और तुमको मधु पिलाने की लगी है!

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दिवस उनींदे उन्मन बीते
रात जागरण के प्रण जीते
क्यों आगमन गमन बन जाता
क्यों संहार सृजन बन जाता
मरण जनम या जनम मरण है
कहीं न कोई निराकरण है
ज्ञान गुमान शेष हो जाते
आदि अंत को सीते —सीते
पल में धूप बनी क्यों छाया
माया रूप रूपरत माया
जल मैं उपल उपल में जल है
जीव — जीव में जगत समाया
सरि में लहर लहर में धारा
धार — धार में जीवन सारा
बूंद — बूंद में भरने वाले
भरे — पुरे सागर क्यों रीते
कुशल—क्षेम ही कहते सुनते
चले गये सब क्यूं सिर सुनते
ब्रह्म सत्य तो जग मिथ्या क्यों
रविकर क्यों स्वप्नाबर बुनते
तम में किरण किरण तम कारा
जीत जीत क्यों जीवन हारा
हीरा जनम गंवाया यों ही
रोते — गाते, खाते — पीते
ज्ञान गुमान शेष हो जाते
आदि अंत को सीते —सीते
कहीं कोई निराकरण नहीं दिखायी पड़ता। जीवन की चादर के आदि— अंत सीते —सीते ही सारा जीवन बीत जाता है। धन, पद, ज्ञान के सब गुमान व्यर्थ हो जाते।
हीरा जनम गंवाया यों ही
और यह हीरे —सा जन्म ऐसे ही खो जाता है।

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तुम भी आंचल गीला कर लो
अब रूठे रहो न फागुन में
चर्गो पर थाप पड़ा गहरी, सब
फड़क उठे ढप—ढप ढोलक
खड़के मृदंग झमकीं झांझें
पग थिरक उठे नैना अपलक
लो होड़ लगी देखा —देखो
घुंघरू पायल की रुनझुन में
कुमकुम अबीर के मेघ उड़े
खिलता पलाश फागुन गाओ
ऐसे में मन मारे न रहो
कुछ रस में ड़बो, उतर
आओ आओ, शामिल हो जाओ
मौसम के पूजन — अर्चन में
तुम भी आंचल गीला कर लो
अब रूठे रहो न फागुन में
यह जो अष्टावक्र और जनक का संवाद मैंने तुमसे कहना चाहा है, इसी आशा में कि तुम भी थोड़े इस फागुन के रस में डूब सको। एक बूंद भी तुम्हारे हाथ लग जाए तो सागर दूर नहीं। एक किरण भी हाथ लग जाए तो सूरज दूर नहीं।
तुम भी आंचल गीला कर लो
अब रूठे रहो न फागुन में
चर्गो पर थाप पडी गहरी, सब
फड़क उठे ढप—ढप ढोलक
खड़के मृदंग झमकीं झांइाएं
पग थिरक उठे नैना अपलक
लो होड़ लगी देखो —देखो
घुंघरू पायल की रुनझुन में
कुमकुम अबीर के मेघ उड़े
खिलता पलाश फागुन गाओ
ऐसे में मन मारे न रहो
कुछ रस में ड़बो, उतर आओ
आओ, शामिल हो जाओ
मौसम के पूजन— अर्चन में
तुम भी आंचल गीला कर लो

अब रूठे रहो न फागुन में
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जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो