Tuesday, 4 August 2015

का सोवै दिन रैन–(प्रवचन–11)




का सोवै दिन रैन–(प्रवचन–11)



दुनिया पै है तारी रंग नया आलम ने भी बदले है चोले
यह किसने अदाए खास से फिर रुखसारे महो अंजुम खोले
और एक हसीन अंगड़ाई की हर जुंबिश से मोती रोले
फिर आज तुम्हें शायद छूकर यह मस्त हवाएं आई हैं।
कुछ दर्दसा है दिल वालों में, कुछ सोज भी है अफसानों में
एहसासेगमेमहरूमी लो बेदार हआ दीवानों में
इक लगजिशेपैहम होने लगी फिकरत के हंसी इवानों में
फिर आज तुम्हें शायद छूकर यह मस्त हवाएं आई हैं।
हर जर्रएआलम रक्सां है, मुशातिए फितरत जोश में है
इक होश की दुनियां मुजतरसी हस्ती के दिलेबदहोश में है
थी जिसकी तमन्ना मुद्दत से जैसे कि वही आगोश में है
फिर आज तुम्हें शायद छूकर यह मस्त हवाएं आई हैं।
है चाक गरेबां गुंच गुल खंदां है गुलिस्तां एक तरफ
आकाश तले हैं शैखोबरहमन खुल्देबदामा एक तरफ
और आलमे सरशारी में हया है आज गजल ख्वां एक तरफ
फिर आज तुम्हें शायद छूकर यह मस्त हवाएं आई हैं।

सूत्र:

माया रंग कुसुम्म महा देखन को नीको।   
मीठो दिन दुई चार, अंत लागत है फीको
कोटिन जतन रह्यो नहीं, एक अंग निज मूल।
ज्यों पतंग उड़ि जायगो, ज्यों माया काफूर।।
नाम के रंग मजीठ, लगै छूटै नहिं भाई।
लचपच रह्यो समाय, सार ता में अधिकाई।।
केती बार धुलाइए, दे दे करड़ा धोए।
ज्यों ज्यों भट्ठी पर दिए, त्यों त्यों उज्ज्वल होय।।
सोवत हो केहि नींद, मूढ मूरख अग्यानी।
भोर भए परभात, अबहि तुम करो पयानी।।
अब हम सांची कहत हैं, उडियो पंख पसार।
छुटि जैहो या रुख ते, तन सरवर के पार।।
नाम झांझरी साजि, बाधि बैठो बैपारी।
बोझ लयो पाषान, मोहि हर लागै भारी।।
मांझ धार भव तखत में, आइ परैगी भीर।
एक नाम केवटिया करि ले, सोई लावै तीर।।
सौ भइया की बांह, तपै दुर्जोधन राना।
परे नरायन बीच, भूमि देते गरबाना।।
जुद्ध रचो कुरुक्षेत्र में, बानन बरसे मेह।
तिनही के अभिमान तें, गिधहुं न खायो देह।।
जोधा आगे उलटपुलट, यह पुहमी करते।
बस नहिं रहते सोय, छिने इक में बल रहते।।
सौ जोजन मरजाद सिंध के, करते एकै फाल।
हाथन पर्वत तौलते, तिन धरि खायो काल।।
ऐसा यह संसार, रहट की जैसे घरियां।
इक रीती फिरि जाय, एक आवै फिरि भरियां।।    
उपजिउपजि विनसत करैं, फिरि जमै गिरास।
यही तमासा देखिकै, मनुवा भयो उदास।।
जैसे कलपि कलपि के, भए हैं गुड की माखी।
चाखन लागी बैठी, लपट गई दोनों पाखी।।
पंख लपेटे सिर धुनै, मन ही मन पछिताय।
वह मलयागिरि छांडि के, यहां कौन विधि आय।।
खेत बिरानो देखि, मृगा एक बन को रीझेव।
नित प्रति चुनि चुनि खाय, बान में इन दिन बीधेव।।
उचकन चाहै बल करै, मन ही मन पछिताय।
अब सो उचकि न पाइहौं, धनी पहूंचो आय।।
कल भी थीं जहनीयतें मजरूह ओहामोगुमा
कुश्तएईहाम है दुनियाए इसा आज भी
कल भी था चश्मेबसीरत पर हिजाबेइफ्तदार
हुर्रियत की रूह है मरिहूनेजिंदा आज भी
कल भी थे जोशोअनाके बास्‍ते दारोरसन
अहलेहक के वास्ते है तेगबुरी आज भी
सीनएगेती से कल भी उठ रहा था इक धुआं
जर्राहाएदहर है शोला बदामां आज भी

 

जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो

का सोवै दिन रैन–(प्रवचन–10)





इन वचनों को स्मरण रखना:
अगर मैं तिलस्मेतकल्लुम दिखा दू
तरानों से बज्मेसुरैया बना दू
तरबआशना तल्ख आहों को कर दूं
कबाएहवादस के पुर्जे उड़ा दू
अगर चर्ख को अज्म दूं बंदगी का
दरे खाक पर माहेताबां झुका दूं
अगर नग्लएसरमदी छेड़ दूं मैं
खिजां में गुलों को महकना सिखा दू
अजल भी मेरे गम पै आंसू बहाए
अगर नालए जिंदगानी सुना दू
अगर छेड़ दूं साज खिलवत में तेरी
चिरागों को ताके हरम से गिरा दूं
कहो तो बदल दूं निजामेदो आलम
जहन्नम में फूलों की जन्नत बसा दूं
गुलिस्तां का हर फूल दिल बन के महके
अगर एक अश्‍केतमन्‍ना गिरा दूं
शमीमआह कर दूं तो लौ दे जमाना
फजा मुसकरा दे अगर मुसकरा दूं
शरमिदगीएकोशिशेनाकाम कहां तक;
महरूमिएतकदीर का इल्जाम कहां तक?
दुनिया को जरूरत है तेरे इज्मे जवा की
सर गुश्ता रहेगा सिफ्तेजाम कहां तक?
लैलाहककित से भी हो जा कभी दोचार
ख्वाबों की हसी छांव में आराम कहां तक?
रुख गर्दिशेदौरा का पलट सकता है तू खुद
नादां गिलएगर्दिशेऐम्याम कहां तक?
जुजवहम नहीं, कैदेरहोरस्मे जमाना
ऐ ताइरे आजाद! तहेदाम कहां तक?
देख तू सुर्मई आकाश पै तारों का निखार
रात की देवी के माथे पै चुनी है अफ्शां
या कुछ अश्कों के चराग
हैं किसी राहगुजर में लर्जां
आह यह सुर्मई आकाश, यह तारों के शरार
यह मेरे दिल को खयाल आता है
दम अंधेरे में घुटा जाता है
क्यों न ईवानेतसव्बुर में जला लूं शमएं
बरबतोचंगोरबाब
मुंतजिर हैं मेरे मिजराब की एक जुंबिश के
जिंदगी क्यों फकत एक आहेमुसलसल ही रहे
क्यों न बेदार करूं वो नग्मे
वक्त भी सुन के जिन्हें थम जाए
रहगुजारों में ये बहता हुआ जूं
मौत के साए तले सिसकियां भरती है हयात
इस उमड़ते हुए का से किनारा कर लूं
ये सिसकती हुई लाशें, ये हयाते मुर्दा
ये जबीनें जिन्हें सज्दों से नहीं है फुरसत
ये उमंगें जिन्हें फाकों ने कुचल डाला है
यह बिलकती हुई रूहें, ये तड़पते हुए दिल
इन ढकलते हुए अश्कों को चुराकर मैं भी
अपने ईवानेतसस्मृर में गलकर लूं
देखकर रात की देवी का सिंगार
वहम आता है मगर
नग्म:ओ नै का सहारा लेकर
जिंदगी चल भी सकेगी कि नहीं;
इन सितारों की दमकती हुई कदीलों से
रात के दिल की सियाही भी मिटेगी कि नहीं।
आकाश को देखा हैतारों से भरा! ऐसे ही तारों से तुम भी भर सकते हो। रात चुनरी देखी आकाश की! ऐसी ही चुनरी तुम्हारा भी परिधान बन सकती है
देख तू सुर्मई आकाश पै तारों का निखार
रात की देवी के माथे पै चुनी है अफ्शां
रात की देवी के माथे पर चुन्नी है तारों की।
या कुछ अश्कों के चराग। या आंसुओ के टिमटिमाते दीपक। हैं किसी राहगुजर में लर्जा
और यह सुर्मई आकाश यह तारों के शरार
यह मेरे दिल को खयाल आता है
दम अंधेरे में घुटा जाता है
रो सको अगर दिल खोलकर, तो पर्दे उठ जाएं।
ढलकेढलके आंसू ढलके
छलकेछलके सागर छलके
दिल के तकाजे उनके इशारे
बोझलबोझल हल्केहल्के
देखोदेखो दामन उलझा
ठहरोठहरो सागर झलके
उनका तगाफुल उनकी तवज्जा
इक दिल, उस पर लाख तहलके
उनकी तमन्ना, उनकी मुहब्बत
देखो संभल के, देखो संभल के
गम ने उठाए सैकड़ों का
दिल ने बसाए लाख महल के
पल में हंसाओ, पल में रुलाओ
पल में उजाले, पल में धुंधलके
हमने न समझा, तुमने न जाना
दिल ने मचाए लाख तहलके
लाख मनाया, लाख भुलाया
नैन कटोरे भरभर छलके
कितने उलझे कितने सीधे
रस्ते उनके रंगमहल के
कड़ियां झेली पापड़ बेले
का सौवें दिन रैन
झलके अब तो मुखड़ा झलके!
कितने उलझे कितने सीधैरस्ते उनके रंगमहल के!

 

जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो