Thursday, 8 November 2018

आंसू: चैतन्य के फूल—(पहला प्रवचन)

जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो

तुम्हारी दी हुई एक जिंदगी--
आखिर जी गया!
सुबह-शाम
कड़वेत्तीखे
उबलते गरल सरीखे
जो भी मिले जामउठायाउठा कर पी गया!
एक जिंदगी जी गया।

अंगार चुगे,
फूल कलेजे का जला
दिदोरे बहुत-बहुत उगे,
भला ही हुआ
जीवन का यह दीया मुआ
जलाए बिना जलता ही कहां?
सुगंध भरा यह धूप गलता ही कहां?
इसलिएकुछ को नहीं नकारा,
जो भी मिलासादर स्वीकारा,
बड़ी महंगीयह तुम्हारी ही दया
एक जिंदगी जी गया।

मैं जब भी कहीं बाहर निकलता था
एक अनपहचाना कोई और मेरे साथ-साथ चलता था
सदाछाया सा
सांझ ढले सी छाया सिमट गई
वह खो गया रंगीन मेघों की माया सा।
आज जानावह और कोई नहीं
मेरा ही मैं था--हायवह भी गया।
एक जिंदगी जी गया।

जन्म दिया और मौत गले मढ़ी
इस लंबे और बीहड़ सफर में
कितनी ही बार वह अड़ कर सामने हुई खड़ी।
मैं होंठों मुस्कुरायाबांहें बढ़ा दीं,
पंजरा उभराछाती सामने अड़ा दी,
यह जिंदगी और है भी क्या,
मरण की निशकरुण बंदगी के सिवा?
सोअरूप मेरे हे बंधु आगत!
स्वागत हैहजार बार स्वागत!!
तुमने मरण दियामैं जीवन देता हूंलो
और कुछबोलोबोलो!
मरण देख शरमा कर सहमा
समर्पण यह अकल्पित एकबारगी नया।
एक जिंदगी जी गया।

सपने सब झूठ हुएआशाएं टूटीं,
फिर भी इन होंठों से हंसी नहीं छूटी।
आज जब सांसों का ऋण
चुकता करने चला हूं गिन-गिन
जी में आता हैजरा रो तो लूं
तुम्हारी लिखी अनगढ़ लिपि को
आंखों के गंगाजल से धो तो लूं।
कम से कम यह संतोष लेकर तो जाऊं
कि तुमने कफन को जो चीर दिया,
वह भी चौचीर दिया--
मैं उसे सी गया।
आखिर एक जिंदगी जी गया।


आंसू: चैतन्य के फूल—(पहला प्रवचन)
दिनांक २७ मार्च१९८०


रहिमन धागा प्रेम का-(प्रश्नोत्तर)-ओशो

जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा। और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। ओशो

फूला पीला कनेर अहाते में

भेजे दृग से निमंत्रण
कोई हलके से चुने
रचा उसने प्रणय-छंद
कोई आग्रह से सुने
पहला चुंबन लिखाए खाते में
फूला पीला कनेर अहाते में

सुआ-पंखी अवगुंठन
उभारे हलदिया रंग
उठा उम्र का मधु-ज्वार
चढ़ा अंगों पर अनंग
नमस्कार करे आते जाते में
फूला पीला कनेर अहाते में

अरुणोदय से भी पूर्व
करते फूल ओस-स्नान
कोई आंख भर निरखे
ताने लाज के वितान
जैसे निर्वसन रूप नहाते में
फूल पीला कनेर अहाते में


रहिमन धागा प्रेम का-(प्रश्नोत्तर)-ओशो